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भगवती आराधना क्योंकि उन्होंने भी दशवकालिक पर टीका रची थी। यापनीय सम्प्रदायमें जैसे शब्दानुशासनके रचयिता शाकटायन श्रुतकेवलिदेशीय कहे जाते थे वैसे ही यह आरातीय चूड़ामणि कहे जाते . होंगे। और उस समय भगवती आराधना पर टीका लिखना भी एक विशिष्ट महत्ताका परिचायक होगा।
इसमें तो सन्देह नहीं कि अपराजित सूरि जिनागमके विशिष्ट अभ्यासी थे। उनकी विजयोदया टीका उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य और रचना शैलीकी विशिष्टताका परिचायक है। संस्कृत और प्राकृत पर उनका समान अधिकार था तथा गद्यकी तरह पद्य रचनामें भी अधिकार था। उनकी इस टीकामें चतुर्गतिका वर्णन करनेवाले कुछ श्लोक उन्हींके द्वारा रचित प्रतीत होते हैं ।
उनका इस रचनाका एक उद्देश हमें अचेलकत्वको प्रतिष्ठा करना प्रतीत होता है । क्योंकि ४२३ गाथाके व्याख्यानमें उन्होंने आगम प्रमाणोंके प्रकाशमें उसे जोरसे है। इसे हम पूर्वमें लिख आये है। अतः वह ऐसे समयमें हुए हैं जब वस्त्र पात्रवाद बढ़ रहा था। श्वेताम्बर परम्परामें विशेषावश्यक भाष्य इस विषयक एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जम्ब स्वामीके पश्चात् जिनकल्पकी व्युच्छित्तिकी घोषणा की गई है। ईसाकी आठवीं शताब्दीके श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरिने तो अपने संबोध प्रकरणमें साधुओंके अकारण कटिबन्ध पर भी आपत्ति की है। किन्तु टीकाकारों के द्वारा अचेलका अर्थ अल्पचेल और अल्पमूल्यचेल किये जानेसे अचेल जैसे स्पष्ट शब्दका भी वास्तविक अर्थ लुप्त हो गया। यह समय नौवीं शताब्दी है इसीके आसपास · अपराजित सूरि होना चाहिये। उनकी टीकामें जो उद्धरण खोज निकाले गये हैं उनमेंसे अर्वाचीन एक उद्धरण वरांगचरित का है। उसका रचनाकाल सातवीं शताब्दी है अतः उसके पश्चात् ही विजयोदया रची गई है। भर्तृहरि शृङ्गार शतकका भी एक श्लोक उद्धृत है। उसका समय भी लगभग यही होना चाहिये। यह उसकी पूर्वावधि है। उत्तरावधि तो आशाधरजीकी टीका है ही, उसमें विजयोदयाके अनेक उल्लेख हैं। संस्कृत पद्यानुवादके रचयिता अमितगतिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शती है। किन्तु उनके पद्यानुवादके सिवाय भो दो पद्यानुवाद और भी पाये जाते हैं। और वे अमितगतिसे पूर्वके हो सकते हैं; क्योंकि यद्यपि अमितगति एक सिद्धहस्त ग्रन्थकार हैं फिर भी पूर्व रचनाओंको अपनानेकी उनमें प्रवृत्ति देखी जाती है। उदाहरणके लिये उन्होंने संस्कृत पञ्चसंग्रह रचा और उसे मौलिक मान लिया गया। किन्तु जब लक्ष्मण सुत डडढाका पञ्चसंग्रह प्रकाशमें आया तब ज्ञात हुआ कि उसीका अनुसरण अमितगतिने किया है। उनके सामने विजयोदया हो सकती है। अन्य टिप्पण प्रकाशमें आनेपर विशेष प्रकाश पड़ सकेगा।
श्रीयुत प्रेमीजीने इन्हें विक्रमकी नवम शताब्दीके पहले और छठी शताब्दीके बादका बतलाया है। उन्होंने लिखा है-गंग वंशके पृथ्वी कोंगुणी महाराजका एक दानपत्र श० सं० ६९८ (वि० सं० ८३३) का मिला है। उसमें यापनीय संघके चन्द्रनन्दि, कीर्तिनन्दि और विमलचन्द्रको जैनमन्दिरके लिये एक गाँव दिये जानेका उल्लेख है । अपराजित शायद इन्हीं चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य हों।'
१. देखो-मेरा लिखा 'भगवान महावीरका अचेलक धर्म', भा० जनसंघ मथुरासे प्रकाशित । २. भ० आ०, पृ० ३९० । ३. सै० सा० इ०, पृ० ७९ ।
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