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प्रस्तावना
उपसंहार
अन्तमें मैं उन सबको धन्यवाद देता हूँ जिनके सहयोगसे मुझे इस ग्रन्थके सम्पादन, संशोधन और प्रस्तावना लेखनमें सहयोग मिला। दिल्लीके लाला पन्नालाल जीके सहयोगसे दि० जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा दिल्ली की प्रति प्राप्त हुई । श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जीके अधिकारियोंके सहयोगसे डा० कस्तूरचन्द्र जी काशलीवाल जयपुर द्वारा आमेर शास्त्र भण्डारकी प्रति प्राप्त हुई। पं० रतनलाल जी कटारिया केकड़ीके द्वारा टोडा रायसिंहकी प्रतिके पाठान्तर तथा प्रति प्राप्त हुई । सर सेठ भागचन्द जी, पं० सुजानमलजी सोनी आदि प्रयत्नसे भट्टारकजी के मन्दिर अजमेरकी प्रति प्राप्त हुई । तथा जीवराज ग्रन्थमाला के मंत्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाह के सहयोगसे उस ग्रन्थमालासे इसका प्रकाशन हुआ । और पं० बाबूलाल जी फागुल्ल तथा उनके सुपुत्र श्री राजकुमार जीके सहयोग से एक ही वर्षके मध्य में इसका मुद्रण हो सका ।
यह ग्रंथ महान है । इसके सम्पादन, संशोधन, अनुवाद और मुद्रणमें भूल रहना स्वाभाविक है । यथा गाथा २५१ का अर्थ ही छूट गया है । उसे यहाँ दिया जाता है । पाठक सुधारकर पढ़ने का कष्ट करे
आसाढ़ी अष्ट
वी० नि० सं० २५०४
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२५१ गाथाका छूटा हुआ अर्थ
'यदि क्षपककी आयु शेष हो और शरीर में बल हो तो जो अनेक भिक्षु प्रतिमायें कही हैं उनको भी धारण करें । जो अपनी शक्तिके अनुसार शरीरको कृश करता है उसे ये भिक्षु प्रतिमायें कष्ट नहीं देतीं । किन्तु जो शक्तिका विचार किये बिना सल्लेखना धारण करता है उसकी समाधि भंग होती है और उसे बड़ा क्लेश उठाना पड़ता है ।। २५१ ॥ '
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विद्वानोंका अनुचर कैलाशचन्द्र शास्त्री
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