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भगवती आराधना भद्रसे प्रभावित होकर मुनि बने होते तो अपनी इस कृतिमें वे अवश्य ही इस घटनाका कुछ तो संकेत देते। अतः प्रभाचन्द्रकृत कथाकोशमें इस ग्रन्थकी रचनाके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा गया . है वह किसी किम्बदन्तीके आधारसे ही लिखा गया प्रतीत होता है । अस्तु, रचनाकाल
आर्य शिवके सम्बन्धमें कुछ विशेष ज्ञात न होनेसे उसके रचनाकालके सम्बन्धमें केवल इतना ही कहा जा सकता है कि आचार्य जिनसेनके महापुराणसे पूर्वमें आराधनाकी रचना हुई है। किन्तु कितने पूर्व हुई है यह कहना शक्य नहीं है। विद्वानों का अनुमान है कि आचार्य कुन्दकुन्द तथा मूलाचारके रचयिता बट्टकेरके समकक्ष ही शिवार्य होने चाहिये क्योंकि भगवती आराधनामें कुछ नवीन प्रतीत नहीं होता। सब कुछ प्राचीन ही है। उसकी गाथाएँ यदि मेल खाती हैं तो दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके प्राचीन ग्रन्थोंसे ही मेल खातीहैं । उसकी आचार विषयक गाथाएँ मूलाचारमें छुटफुट रूपसे मिलती हैं और मरण समाधि विषयक कुछ गाथाएँ मरण समाधि आदिमें मिलती हैं। उसमें जो मरणोत्तर विधि है जो आजके प्रबुद्ध पाठकोंको भी विचित्र प्रतीत होती है वह भी उसकी प्राचीनताकी द्योतक है। प्राचीन युगमें इस तरहके विश्वास पाये जाते थे। ग्रन्थमें अचेलकता पर बहत जोर दिया है तथा वस्त्रको परिग्रहक उपलक्षण बतलाकर समस्त परिग्रहके त्यागको अनिवार्य बतलाया हैं । कमण्डलु और पीछी दो ही उपकरण साधुके लिए अनिवार्य कहे हैं।
यापनीय संघकी उत्पत्ति जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधुसे हुई बतलाई है वह हमें परिग्रहके कारण ही हुई प्रतीत होती है। श्वेताम्बर साधु वस्त्र पात्रको अनिवार्य मानते थे। किन्तु यापनीय उससे सहमत न होंगे। इसीसे वे पृथक् हो गये होंगे। उसी समयकी यह रचना होना संभव है । उसके ऊपर जो संस्कृत और प्राकृतमें तथा गद्य और पद्यमें इतनी टीकायें रची गईं वे भी उसकी प्राचीनताको ही प्रकट करती हैं। अन्तिम उपलब्ध टीका आशाधर की है जो विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके उत्तरार्ध में रची गई है । और विक्रमकी नवम शताब्दीमें रचित महापुराणमें भगवती आराधना तथा उसके रचयिता शिवकोटिको स्मरण किया गया है। लगभग इसी कालकी रचना विजयोदया टीका होनी चाहिये । और विजयोदया लिखते समय उसके रचयिताके सामने एक नहीं, अनेक व्याख्यायें थीं। अतः भगवती आराधना विक्रमकी प्रारम्भिक शताब्दीके आसपास की रचना होना चाहिये। अतः उसे हम कुन्दकुन्दकी रचनाओंका लगभग समकालीन मान सकते है। कुन्दकुन्दके समयसारकी मंगल गाथा 'वंदित्तु सव्वसिद्धे' और भगवतीकी मंगलगाथा 'सिद्धे जयप्पसिद्धे' में हमें शब्दशः और अर्थशः एक-सी ही ध्वनि और भावना गूंजती हुई
प्रतीत होती हैं।
किन्तु कुन्दकुन्दने अपने चरित्तपाहुडमें समाधिमरणको चार शिक्षाव्रतोंमें स्थान दिया है और तत्त्वार्थसूत्रमें सल्लेखनाको अलगसे कहा है । भगवती आराधनामें भी गुणव्रत और शिक्षाव्रत तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार कहे हैं। तथा सल्लेखनाको पृथक्से कहा है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें रात्रिभोजन त्यागवतकी कोई चर्चा नहीं है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम टीकाकार पूज्यपाद कहते हैं कि
१. हरि० कथाकोश की डा० उपाध्ये की प्रस्ता० पृ० ५५ ।
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