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________________ ४१६ भगवती आराधना जहा पच्छा होइ अपत्थं इति सम्बन्धः कार्यः । दुर्जने कृता मैत्री यथा न पथ्यं, दुःखं प्रयच्छतीति एवं चारित्रबालस्य संयमोभयविकलस्य कृतापि प्रायश्चित्तालाभमूला अनेकानर्थावहेति भावः ॥६०२॥ पासत्थो पासत्थस्स अणुगदो दुक्कडं परिकहेइ । एसो वि मज्झसरिसो सव्वत्थवि दोससंचइओ ॥६०३।। 'पासत्यो पासत्थस्स' पार्श्वस्थः पार्श्वस्थमनुगतः । 'दुक्कडं परिकहेदि' दुष्कृतं परिकथयति । 'एसो वि' एषोऽपि । 'मज्झसरिसो' मत्सदृशः । 'सव्वत्थ वि' सर्वेष्वपि व्रतेषु । 'दोससंचइओ' दोषसंचयोद्यतः ।।६०३।। जाणइ य मज्झ एसो सुहसीलत्तं च सव्वदोसे य । तो एस मे ण दाहिदि पायच्छित्तं महल्लत्ति ॥६०४॥ 'एसो मज्झ सुहसीलतं जाणदि' एष मम दुःखासहत्वं वेत्ति । "सम्वदोसे य जाणदि' सर्वांश्च व्रतातिचारानवगच्छति । 'तो' तस्मात् । 'एस मे न दाहिदि' एष मे न दास्यति । 'महल्लं पायच्छित्तंति' महत्प्रायश्चित्तमिति मत्वा कथयतीति सम्बन्धः ।।६०४॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि । सो पवयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो ॥६०५।। स्पष्टार्था ॥६०५॥ उत्तर गाथा जह कोइ लोहिदकयं वत्थं धोवेज्ज लोहिदेणेव । ण य तं होदि विसुद्धं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥६०६॥ 'जह कोइ लोहिदकयं' करोति क्रियासामान्यवाची इह लेपे वर्तते तेनायमर्थः-यथा कश्चिल्लोहितेन लिप्तं वस्त्रं । 'धोवेज्ज' प्रक्षालयेत् । 'लोहिदेणेव' लोहितेनैव । ‘ण य तं हवदि विसुद्ध" नैतद् भवति विसुद्धं । देने में समर्थ नहीं होता । अथवा जैसे दुर्जनसे की गई मित्रता हितकर नहीं होती, दुःखदायक होती है उसी प्रकार प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमसे रहित चारित्र बालमुनिके सन्मुख की गई भी आलोचना प्रायश्चित्तका लाभ न होनेसे अनेक अनर्थोंको लानेवाली है ॥६०२॥ गा०-पार्श्वस्थमुनि पाश्र्वस्थमुनिके पास जाकर अपने दोषोंको कहता है। वह जानता है कि यह भी मेरे समान है । सब व्रतोंमें दोषोंसे भरा है ॥६०३।। गा०—यह मेरी सुखशीलताको जानता है कि मैं दुःख सहन नहीं कर सकता। मेरे सब व्रतोंके दोषोंको भी यह जानता है। अतः यह मुझे बड़ा प्रायश्चित्त नहीं देगा। यह मानकर वह उससे अपने दोष कहता है ।।६०४॥ गा०—यह पार्श्वस्थमनि मेरे द्वारा कहे सब दोषोंको जानता है ऐसा मानकर उससे प्रायश्चित लेना आगमसे निषिद्ध है । और यह आलोचनाका दसवाँ दोष है ।।६०५|| . गा०—जैसे कोई रुधिरसे सने हुए वस्त्रको रुधिरसे ही धोता है तो वह विशुद्ध नहीं होता। १. सव्वदोसे य जानाति सर्वदोषांश्च । तो-मु० । VAAAAAA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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