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________________ १८० भगवती आराधना णामनिर्वर्तनसामर्थ्यमनुभवाख्यं च निवर्तयति । तानि चात्मप्रदेशस्थान्यनन्तप्रदेशपुद्गलस्कन्धद्रव्याणि सन्निहितद्रव्यक्षेत्रकालभवभावसहायापेक्षया पुनरपि मिथ्यात्वादिपरिणाममापादयन्ति । न हि सन्निहिताविकलकारणसमूहस्य कार्यस्य अनुत्पत्तिर्नाम संभाव्यते । तेन चाश्रद्धानादिपरिणामेन तथैव कर्मणामादानं, आत्तानां स्थितिः, सामर्थ्यातिशयः इत्यादिका परंपरता तयानन्तकालपरिभ्रमणमिति महानयमनर्थो मम भविष्यतीति, एवंभूतेन विचारेण मनो निवर्तयति यस्तस्य श्रामण्यमिति संबन्धः। 'णिग्गहदि य मणं जो' यो मनो निगलाति 'हा दूठं चितितमिदमिति' निन्दागाम्यां तस्य श्रामण्यमिति संबन्धः । 'करेदि अदिलज्जियं च मणं', करोत्यतीव लज्जापरं यो मनः । कथं संसारमहितं तत्कारणभूतान्परिणामान्मुक्ति तदुपायांश्च भावानधिगच्छतः श्रद्धानस्य तत्परिणामव्यपोहनार्थमेवं गृहीतनिर्ग्रन्थलिंगस्य चिन्तेय मयुक्तेति, निरूपयति, अतिव्रीडां मनसो जनयति ॥१४२॥ दासं व मणं अवसं सवसं जो कुणदि तस्स सामण्णं । होदि समाहिदमविसोत्तियं च जिणसासणाणुगदं ॥१४३॥ 'अवसं दास व मणं सवसं जो कुणदि' इति पदसंबन्धः । दास व चेटिपुत्रं अवशवतिनं यथा कश्चिबलात्स्ववशं करोत्येवमधीतजिनवचन आत्मनो मनो निरवग्रहतया प्रवृत्तं अशुभपरिणामप्रसरे यदि नाम तथापि बलात्तन्निर्भाभिमतशुभभावपरंपरानुकूलतया यः स्थापयति जैनमतामृतास्वादकारितत्सामर्थ्यातिशयस्तस्य उनके स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धके कारण होते हैं। आत्माके प्रदेशोंमें कर्मोंके अवस्थानका नाम स्थितिबन्ध है और तीव्र मध्यम मन्दरूप अश्रद्धान, असंयम और कषायरूप परिणामोंको उत्पन्न करनेकी शक्तिको अनुभाग बन्ध कहते हैं। आत्माके प्रदेशोंके साथ बन्धको प्राप्त हुए वे अनन्तप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध सम्बद्ध द्रव्य क्षेत्र, काल, भव और भावकी सहायता पाकर पुनः मिथ्यात्वादिरूप परिणामों की उत्पत्तिमें सहायक होते हैं। क्योंकि जिस कार्यके समस्त कारण पूर्णरूपसे विद्यमान होते हैं वह कार्य अवश्य उत्पन्न होता है। उस उत्पन्न हुए अश्रद्धानादिरूप परिणामसे पुनः उसी प्रकारसे नवीन कर्मोंका बन्ध होता है। उनमें स्थिति और अनुभाग शक्ति पड़ती है। इस प्रकार यह परम्परा चलती है। उस परम्परासे अनन्तकाल तक संसारमें भ्रमण क है। इस प्रकार अश्रद्धान आदिरूप परिणाम करनेसे मेरा महान अहित होगा। इस प्रकारके विचारसे जिसका मन अश्रद्धान आदिसे हटता है उसके श्रामण्य होता है। तथा जो मैंने बुरा किया, बुरा विचारा इत्यादि निन्दा और गर्हासे मनका निग्रह करता है उसके श्रामण्य होता है। तथा जो मनको अत्यन्त लज्जित करता है-हे आत्मन् ! संसार अहित है, उसके कारणभूत परिणामोंको, मुक्तिको और मुक्तिके उपायरूप भावोंको तू जानता है उनकी श्रद्धा करता है। संसारके उन कारणोंको दूर करनेके लिए ही तुने निर्ग्रन्थलिंग धारण किया है, तुझे ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिए इस प्रकार मनको लज्जित करता है उसके श्रामण्य होता है ॥१४२।। ___ गा०–वशमें रहनेवाले दासकी तरह वशमें न रहनेवाले मनको जो अपने वशमें करता है, उसके एकमात्र शुद्ध चिद्रूपका अवलम्बन करनेवाला पाप परिणामोंसे निवृत्त और जिन शासनका अनुगामी श्रामण्य होता है ।।१४३॥ ___टो०-वशमें न आनेवाले दासीपुत्रको जैसे कोई बलपूर्वक अपने वशमें करता है, वैसे ही जो जिनागमका अभ्यासी अशुभपरिणामोंके प्रवाहमें वे रोक प्रवृत्त हुए अपने मनको बलपूर्वक उसकी डाँट फटकार करके इष्ट शुभ भावोंकी परम्पराके अनुकूल बनाता है, उसमें यह विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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