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________________ विजयोदया टीका १८१ 'सामण्णं' समानता 'होदि' भवति । 'समाहिद' एकमुखं । 'अविसोत्तिगं' दूरापसृतविश्वरूपाशुभपरिणामप्रवाहं । 'जिणसासणाणुगदं' संपाटितद्रव्यभावकर्मक रपराभवानां यच्छासनं - शिष्यंते जोवादयः पदार्था अनेनास्मिन्वेति शासनं आगमस्तेनानुगतम् ॥१४३॥ योग्यस्य गृहीतमुक्त्युपायलिङ्गस्य श्रुत शिक्षापरस्य पञ्चविधविनयवृत्तेः स्ववशीकृतमनसः अनियतवासो युक्तः । कस्तत्र गुणः ? इत्यारेकायां समाधिगतस्य अनियत विहारगुणप्रकटनार्थं उत्तरसूत्र - दंसणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं । खेत्परिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होंति ।। ४४ ।। 'दंसणसोधी' दर्शनशुद्धिः । दृशिर प्रेक्षणे इति पठितोऽपि धातुः श्रद्धानार्थं वृत्तिरिह गृहीतः । धातूनामनेकार्थत्वात् । तथा च सूत्रं - 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' । [ तं०सु० १।२ ] इति जिनागमनिरूपितार्थविषयश्रद्धानमिह दर्शनशब्देन भण्यते । तस्य शुद्धिर्नेर्मल्यं । 'ठिदिकरणं' स्थितिकरणं रत्नत्रयपरिणामस्यात्मनोऽनपायः' । तस्य करणं स्थितिकरणं । 'भावणा' भावना अभ्यासः पुनः पुनवृत्ति: । 'अविसयत्त कुसलत्तं' अतिशयितेष्वर्थेषु निपुणता । 'खेत्तपरिमग्गणावि यक्षियंति निवसन्ति तस्मिन्निति क्षेत्रं । ग्रामनगरादिकं क्षेत्रं । तस्य क्षेत्रस्य अन्वेषणा च । अनियतस्थानवसने गुणा 'होति' भवन्ति ॥ १४४ ॥ सामर्थ्यं जैनमतरूपी अमृतका पान करनेसे आई है । उसके 'सामण्ण' अर्थात् समभावपना होता है । वह श्रामण्य एक मुख होता है, अशुभपरिणाम प्रवाहको जिन्होंने विश्वको अपने रंग में रंगा है, दूर करता है, और जिनशासनानुगत होता है । द्रव्य और भावकर्मके द्वारा किये जानेवाले पराभवोंको जिन्होंने नष्ट कर दिया है उन जिनका शासन । जिसके द्वारा या जिसमें जीवादि पदार्थ सिखाये जाते हैं उसे शासन कहते हैं अर्थात् जिनागमका अनुगामी होता है || १४३|| जो योग्य है, जिसने मुक्तिका उपाय जो निर्ग्रन्थलिंग है उसे स्वीकार किया है, श्रुतके अभ्यास में तत्पर है, पाँच प्रकारकी विनयका पालन करता है, और जिसने मनको अपने वशमें कर लिया है उसके लिए अनियतवास युक्त है । उसमें क्या गुण है ? ऐसी शंका होनेपर समाधि करनेवालेके अनियत विहारके गुण प्रकट करते हैं गा० - दर्शन विशुद्धि, स्थितिकरण, भावना, अतिशय अर्थों में निपुणता और क्षेत्रका अन्वेषण ये अनियत स्थानमें बसनेमें गुण होते हैं ॥ १४४॥ टी० - दर्शन शब्द जिस 'दृशिर' धातुसे बना है यद्यपि उसका अर्थ देखना है फिर भी यहाँ उसका अर्थ श्रद्धान ग्रहण किया है । क्योंकि धातुओंके अनेक अर्थं होते हैं । तत्त्वार्थसूत्रमें कहा भी है- 'तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । अतः यहाँ दर्शन शब्दसे जिनागममें कहे गये अर्थों का श्रद्धान लिया है । उसकी शुद्धि अर्थात् निर्मलता दर्शनविशुद्धि है । आत्माके रत्नत्रयरूप परिणामका नष्ट न होना स्थिति है । उसका करना स्थितिकरण है । पुनः पुनः अभ्यास करने को भावना कहते हैं । ग्राम नगर आदि क्षेत्र हैं । उसकी खोज, ये सब अनियत स्थानमें बसने के हैं ||१४|| विशेषार्थ - समाधिमरणके इच्छुकको एक स्थानमें नहीं बसना चाहिए | अनियत स्थानमें १. पायपरिणामः तस्य आ० मु० । २. क्षंति आ० | क्षयंति मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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