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________________ विजयोदया टीका ७९३ अज्झवसाणठाणंतराणि जीवो विकुम्वइ इमो हु। णिच्चं पि जहा सरडो गिण्हदि णाणाविहे वण्णे ॥१७७५।। 'अज्झवसाणठाणंतराणि जीवो विकुम्वइ इमो खु' अध्यवसायस्थानान्तराणि जीवः परिणमत्ययं । 'निच्चंपि' नित्यमपि, 'यथा सरडोणाणाविहे वण्णे' यथा गोधा नानाविधान्वर्णानुपादत्ते । एवं संसारः ॥१७७५।। तस्य भयमुपदर्शयति-. आगासम्मि वि पक्खी जले वि मच्छा थले वि थलचारी । हिंसंति एक्कमेक्कं सव्वत्थ भयं खु संसारे ॥१७७६॥ 'आयासम्मि वि पक्खो' आकाशे संचरन्तं परकीयपक्षिणोऽपि बाधन्ते । 'जले वि मच्छा' जलेऽपि मत्स्याः । 'थले वि थलचारी' भूमावपि भूमिचारिणः । “हिसंति' बाधन्ते । 'एक्कमेक्कं' अन्योन्यं । 'सम्वत्थ भयं खु संसारे' सर्वत्र भयं संसारे ॥१६७६।। गा०-जैसे गिरगिट नित्य ही नाना प्रकारके रंग बदलता है वैसे ही यह जीव अध्यवसाय स्थानोंको धारण करता हुआ परिणमन करता है ॥१७७५।। विशेषार्थ-भावपरिवर्तनका विस्तत स्वरूप इस प्रकार है-पश्शेन्द्रिय संज्ञो पर्याप्तक मिथ्या जीव सबसे जघन्य अपने योग्य ज्ञानावरण कर्मका अन्तःकोटिकोटी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। उस जीवके उस स्थितिबन्धके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थान होते हैं। उनमेंसे सबसे जघन्य कषायाध्यवसायस्थानमें निमित्त असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायाध्यवसाय स्थान, सबसे जघन्य ही अनुभागबन्ध स्थानको प्राप्त उस जीवके उसके योग्य सबसे जघन्य एक योगस्थान होता है । फिर उसी स्थिति, उसी कषाय स्थान और उसी अनुभागस्थानको प्राप्त उस जीवके दूसरा योगस्थान होता है जो पहलेसे असंख्यात भागवृद्धियुक्त होता है। इस प्रकार श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थानोंके समाप्त होनेपर पुनः वही स्थिति और उसी कषायाध्यवसायस्थानको प्राप्त उसी जीवके दूसरा अनुभागाध्यवसायस्थान होता है। उसके भी योगस्थान पूर्ववत् जानना चाहिये । इस प्रकार तीसरे आदि असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थानोंके समाप्त होनेपर उसी स्थितिको प्राप्त उसी जीवके दूसरा कषायाध्यवसायस्थान होता है । उसके भी अनुभागाध्यवसायस्थान पूर्ववत् जानना। इस प्रकार तीसरे आदि कषायाध्यवसायस्थानोंके समाप्त होनेपर वही जीव एक समय अधिक जघन्यस्थितिको बाँधता है। उसके भी कषायादि स्थान पूर्ववत् जानना। इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे ज्ञानावरण कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पूर्ववत् बांधता है। इसी प्रकार सब मूलकों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंकी सब स्थितियोंको उक्त प्रकारसे बांधता है। इस सबको भावपरिवर्तन कहते हैं ॥१७७५।। संसारसे भय दर्शाते हैं गा०-आकाशमें विचरण करते हुए पक्षियोंको दूसरे पक्षी बाधा देते हैं । जलमें मच्छ बाधा करते हैं। थलमें थलचारी बाधा करते हैं। इस प्रकार सर्वत्र एक दूसरेकी हिंसा करते हैं। अतः संसारमें सर्वत्र भय है ॥१७७६|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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