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________________ ७९४ भगवती आराधना ससगो वाहपरद्धो बिलत्ति णाऊण अजगरस्स मुहं । सरणत्ति मण्णमाणो मच्चुस्स मुहं जह अदीदि ॥१७७७।। 'ससगो वाहपरद्धो' शशो व्याधेनोपद्रुतः, "विलित्तिणाऊण अजगरस्य मुहं बिलमिति ज्ञात्वा अजगरस्य मुखं । 'सरणत्ति मण्णमाणो' शरणमिति मन्यमानः । 'मच्चुस्स मुहं जह अदीदि' मृत्योर्मुखं यथा प्रविशति ॥१७७७॥ तह अण्णाणी जीवा परिद्धमाणच्छुहादिबाहेहिं । अदिगच्छंति महादुहहेदु संसारसप्पमुहं ॥१७७८।। 'तह अण्णाणी जीवा' तथा अज्ञानिनो जीवाः । 'परिचमाणच्छुहादिबाहेहि' 'अनुबाध्यमानाः क्षुदादिभिः व्याधैः । 'अदिगच्छति' प्रविशन्ति । 'महादुहहेतुं' महतो दुःखस्य निमित्तं । 'संसारसप्पमुहं' संसारसर्पमुखं ॥१७७८॥ जावदियाइं सुहाइं होंति लोगम्मि सव्वजोणीसु । ताइंपि बहुविधाइं अणंतखुत्तो इमो पत्तो ॥१७७९।। 'जावदियाई' यावन्ति । 'सुहाणि होंति लोगम्मि' सुखानि भवन्ति लोके । 'सव्वजोणीसु' सर्वासु योनिषु । 'ताईपि बहुविधाई' तान्यपि बहुविधानि । 'अणंतखुत्तो इमो पत्तो' अनन्तवारमयं जीवः प्राप्तः ॥१७७९॥ दुक्खं अणंतखुत्तो पावेत्तु सुहंपि पावदि कहिं वि । तह वि य अणंतखुत्तो सव्वाणि सुहाणि पत्ताणि ||१७८०॥ - 'दुक्खं अणंतखुत्तो पावेत्तु सुहंपि पाववि कहिंवि' दुःखमपि अनन्तवारं प्राप्य सुखमपि प्राप्नोति कथंचित् । 'तघ वि य अणंतखुत्तो' तथाप्यनन्तवारं 'सव्वाणि सुखाणि पत्ताणि' सर्वाणि सुखानि प्राप्तानि गणभृतां चक्रवर्तिनां पञ्चानुत्तरविमानवासिनां लौकान्तिकानामहमिन्द्राणां च सुखानि मुक्त्वा ॥१७८०॥ गा०-जैसे खरगोश व्याधसे सताया जानेपर बिल समझकर अजगरके मुखमें प्रवेश करता है। वह उसे अपना शरण मानकर मत्यके मखमें प्रवेश करता है॥१७७७॥ गा०—उसी प्रकार अज्ञानी जीव भूख प्यास आदि व्याधोंके द्वारा पीड़ित होनेपर महान् दुःखमें निमित्त संसाररूपी सर्पके मुखमें प्रवेश करते हैं ॥१७७८।। गा०-लोकमें सब योनियोंमें जितने प्रकारके सुख होते हैं उन सब अनेक प्रकारके सुखोंको भी इस जीवने अनन्तबार भोगा है ॥१७७९।। गा०–अनन्तबार दुःखोंको प्राप्त करके कदाचित् सुखको भी प्राप्त करता है। तथापि अनन्तबार इस जीवने सब सुखोंको प्राप्त किया है ॥१७८०॥ टी०-किन्तु गणधर, चक्रवर्ती, पांच अनुत्तर विमानबासी, लौकान्तिक और अनुदिश विमानवासी देवोंका सुख इस जीवने प्राप्त नहीं किया, क्योंकि ये चक्रवर्तीको छोड़कर शेष सब नियमसे सम्यग्दृष्टि होनेसे मोक्षगामी होते हैं। और चक्रवर्ती पद बार-बार प्राप्त नहीं होता है ॥१७८०॥ १. अनुभाव्यमानाः क्षुदादिभिर्व्याघ्रः व्याधेश्च -आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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