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________________ विजयोदया टीका करणेहिं होदि विगलो बहुसो चित्तवचिसोदणित्तेहिं । घाण य जिभाए चिट्ठाबलविरियजोगेहिं ॥ १७८१ ॥ 'करणेहि होदि विगलो' विकलेन्द्रियः क्वचिद्भवति । 'बहुसो' बहुश: । 'चित्तवचिसोदणित्तह' मनसा वचसा श्रोत्रेण नेत्रेण करणेन हीनः । स्पर्शनेन्द्रियवैकल्यासंभवात् तदनुपन्यास: । 'घाणेण य' घ्राणेन च । 'जिन्भाए' जिह्वया । 'चेट्टाबलविरियजोगेहि' चेष्टया बलेन वीर्येण च ।। १७८१ ।। जच्चधबहिरमूओ छादो तिसिओ वणे व एयाई । भइ सुचिरंप जीवो जम्मवणे णट्टसिद्धिपहो ।। १७८२ ।। 'जन्वंधवधिरमूगो' जात्यन्धो, बधिरो, मूकः । 'छावो' क्षुधा पीडितः, 'तिसिदो' तृषाभिभूतः । 'वणे व एगागी भवदि' असहायो यथा वने भ्रमति । तथा 'सुचिरं पि' चिरकालमपि । जीवो 'जम्मवणे' जन्मवने भ्रमति । 'णट्ठसिद्धिपहो' नष्टसिद्धिमार्गः । उक्तं च ७९५ कलुषचरितं नष्टज्ञानस्सुसंचितकर्मभिः, करणविकलः 'कर्मोद्यूतो भवार्णवपाततः । सुचिरमवशो दुःखार्तो निमीलितलोचनो, भ्रमति कृपणो नष्टत्राणः शुभेतरकर्मकृत् । श्रवणविकलो वाग्धीनोऽज्ञो यथावृतलोचनः, तुषितमलिनो नष्टोऽटव्यां चरेदसहायकः । असकृदसकृत् गृह्णन् मुञ्चश्चराचरवेहतां, भ्रमति सुचिरं जन्माटव्यां तथायमदेशकः ॥ इति ।। १७८२॥ Jain Education International इंदिये पंचविधेसु वि उत्थाणवीरियविहूणो । भमदि अनंतं कालं दुक्खसहस्साणि पावेतो ।। १७८३ ।। 'एगिदियेसु पंचविधेषु वि' एकेन्द्रियेषु पञ्च प्रकारेष्वपि । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरधारिषु । गा० - यह जीव बहुत बार मन, वचन, श्रोत्र, नेत्र, घ्राण और जिह्वा इन्द्रिय तथा चेष्टा बल और वीर्यं से हीन विकलेन्द्रिय होता है । टी० - किसी प्राणीका स्पर्शन इन्द्रियसे हीन होना तो असंभव है अतः उसका कथन नहीं किया है ।। १७८१ ।। गा० - टी० - कभी यह जीव जन्मसे ही अन्धा, बहिरा, गूँगा होता है और भूख तथा प्यास से पीड़ित होकर जैसे कोई मार्ग भूलकर वनमें अकेला भटकता है उसी प्रकार मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होकर जन्मरूपी वनमें अकेला भ्रमण करता है । कहा भी है-अपने बुरे आचरणोंसे संचित किये कर्मोंके द्वारा अपना ज्ञान खोकर यह जीव धिकलेन्द्रिय होता है तथा कर्मोंसे प्रेरित हो संसाररूपी समुद्र में गिरकर चिरकाल तक पराधीन हो, आंख बन्द करके भ्रमण करता है । उसका कोई रक्षक नहीं होता । जैसे कोई बहरा, गूँगा अन्धा मूर्ख प्राणी प्याससे व्याकुल हो, मार्ग भूलकर अकेला वनमें भटकता है । उसी प्रकार यह संसारी प्राणी मार्गदर्शकके बिना बार-बार सस्थावर पर्यायको ग्रहण करता और छोड़ता हुआ चिरकाल तक जन्मरूपी वनमें भ्रमण करता है ।। १७८२ ॥ गा० - पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिका शरीर धारण करनेवाले पाँच प्रकारके २. तयं नि - मु० । १. कर्मोभूतभ -आ० । १०० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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