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________________ ७९६ भगवती आराधना 'उत्थाणवीरियविहीणो' पृथिव्यादिकायान् परित्यज्य त्रसकायप्राप्तिनिमित्तोत्थानवीर्यरहितः । 'भमदि अणतं कालं' भ्रमति अनन्तकालं । 'दुक्खसहस्साणि पावेतो' दुःखसहस्राणि प्राप्नुवन् ।।१७८३॥ बहुदुक्खावत्ताए संसारणदीए पावकलुसाए । भमइ वरागो जीवो अण्णाणनिमीलिदो सुचिरं ।।१७८४।। 'बहुदुक्खावत्ताए' बहुदुःखावर्तायां । 'संसारणदीए' संसृतिनद्यां । 'पावकलुसाए' पापकलंकसहितायां । 'वरागो जीवो भमदि' दीनो जीवो भ्रमति । 'सुचिरं अण्णाणनिमीलिदो' अज्ञानेन निमीलितः ॥१७८४।। विसयामिसारगाढं कुजोणिणेमि सुहदुक्खदढखीलं । अण्णाणतुंबधरिदं कसायदढपट्टियाबंधं ॥१७८५।। "विसयामिसारगाढं' विषयाभिलाषारंढिं स्तब्धं । 'कुजोणिणेमि सुहदुक्खुदढखोलं' कुत्सितयोनिनेमिकं सुखदुःखदृढकीलं । 'अण्णाणतुंबधरिदं' अज्ञानतुंबधारितं । 'कसायदढपट्टिगाबद्ध' कषायदृढपट्टिकाबन्धं ॥१७८५॥ ... बहुजम्मसहस्सविसालवत्तणिं मोहवेगमहिचवलं। . । संसारचकमारुहिय भमदि जीवो अणप्पवसो ॥१७८६।। 'बहुजम्मसहस्सविसालवत्तणि' अनेकजन्मसहस्रविशालमार्ग । 'मोहवेगं' मोहवेगं । 'संसारचक्कमारुहिय' एवभूतं संसारचक्रमारुह्य । 'अणप्पवसो जोवो भमदि' अनात्मवशो जीवो भ्रमति ॥१७८६।। भारं से वहतो कहिंचि विस्समदि ओरुहिय भारं । देहभरवाहिणो पुण ण लहंति खणं पि विस्समिदं ॥१७८७॥ 'भारं णरो वहतो' भारं वहन्नरः। 'कहंचि भारमोरहिय' कस्मिंश्चिद्देशे काले च भारमवतार्य । 'विस्समदि' विधाम्यतिं । 'देहभरवाहिणो पुण' देहभारोदाहिनो जीवाः पुनः । 'न लभंति खणं पि विस्समिदं' न लभन्ते क्षणमपि विश्रामं कर्तुं । औदारिकर्व क्रियिकयोविनष्टयोरपि कार्माणतैजसयोरवस्थानात् ।।१७८७।। एकेन्द्रियोंमें यह जोव हजारों कष्ट भोगता हुआ अनन्तकाल तक भ्रमण करता है। उसमें इतनी भी शक्ति नहीं होती कि पृथिवी आदि कायोंका त्याग करके त्रसकायकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न कर सके ।।१७८३।। गा०-अज्ञानमें पड़ा हुआ यह बेचारा जीव पापरूपी मैले पानीसे भरी और बहुत दुःखरूपी भंवरोंसे युक्त संसाररूपी नदीमें चिरकाल भ्रमण करता है ।।१७८४॥ . गा०—यह संसाररूपी चक्र ( पहिया) विषयोंकी अभिलाषारूपी आरोरो जकड़ा हुआ है, कुयोनिरूपी नेमि-हाल उसपर चढ़ी हुई है। उसमें सुख दुःखरूपी मजबूत कीले लगी हैं। अज्ञानरूपी तुम्बपर वह स्थित है, कषायरूपी दृढ़ पहियोंसे कसा हुआ है। अनेक हजार जन्मरूपी उसका विशाल मार्ग है। उसपर वह संसार चक्र चलता है। मोहरूपी वेगसे अतिशीघ्र चलता है। ऐसे संसाररूपी चक्रपर सवार होकर यह पराधीन जीव भ्रमण करता है ।।१७८५-८६।। गा०-टी०-भारवाही मनुष्य तो किसी देश और कालमें अपना भार उतारकर विश्राम कर लेता है। किन्तु शरीरके भारको ढोनेवाले जीव एक क्षणके लिये भी विश्राम नहीं पाते। औदारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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