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________________ विजयोदया टोका कम्माभावदुहिदो एवं मोहंघयारगहणम्मि । अंध व दुग्गमग्गे भमदि हु संसारकंतारे || १७८८ ।। 'कम्माणुभावदुहिदो' असद्वेद्यादिपापकर्ममाहात्म्यजनितदुःखः । 'एव' मुक्तेन क्रमेण । 'संसारकंतारे भमदि' संसारकान्तारे भ्रमति । कीदृशे ? 'मोहंधयारगहणम्मि मोहान्धकारगहने । 'अंधो व दुग्गमग्गे' अंध इव दुर्गमार्गे ||१७८८|| दुक्खस्स पडिगतो सुहमिच्छंतो य तह इमो जीवो । पाणवधादीदोसे करेइ मोहेण संछण्णो || १७८९ ।। 'दुक्खस्स पडिग रेतो' दुःखस्य प्रतीकारं कुर्वन् । 'सुहमिच्छंतो य' इन्द्रियसुखमभिलषन् । 'इमो जीवो' अयं जीवः । 'पाणवधादोदोसे' हिंसादिदोषान् । 'करेदि मोहेण संछण्णो करोति मोहेन संछन्नः । एतदुक्तं 'भवति - दुःखभीरुनिरवशेषदुःखापायस्योपायं न वेत्ति । दुःखनिराकरणार्थ्यापि दुःखहेतूनेव हिंसादीन् प्रवर्तयति । इन्द्रियसुखलम्पटोऽपि तेष्वेव हिंसादिषु दुःखहेतुषु प्रवर्तते । ततोऽस्य सकलो व्यापारो दुःखस्यैव मूलमिति ।। १७८९ ॥ दोसेहिं तेहिं बहुगं कम्मं बंधदि तदो णवं जीवो । अध तेण पच्चइ पुणो पविसित्तु व अग्गिमग्गीदो ॥। १७९० ।। 'दोसेहि तह' प्राणिवधादिकैर्दोषः । 'बहुगं कम्मं बंधदि' महत्कर्म बघ्नाति । 'नवं' प्रत्ययं । 'तो' पश्चात् । 'अध' कर्मबन्धानन्तरं । 'तेण पच्चवि' तेन वन्धनेन कर्मणा पच्यते । 'पविसित्तु व' प्रविश्येव । कि ? 'अग्ग' अग्नि । 'अग्गीदो' अग्नेः । अग्नेरागत्य अग्नि प्रविश्य यथा बाध्यते एवं पूर्वैः कर्मभिर्वाधितः पुत्रः प्रत्यग्रकर्मानिलेन दह्यते इति ॥ १७९० ॥ ७९७ और वैक्रियिक शरीरोंके छूट जानेपर भी कार्मण और तैजस शरीर बराबर बने रहते हैं || १७८७|| गा० - इस प्रकार असातावेदनीय आदि पापकर्मों के प्रभावसे दुःखी जीव मोहरूपी अन्धकारसे गहन संसाररूपी वनमें उसी प्रकार भ्रमण करता है जैसे अन्धा व्यक्ति दुर्गम मार्ग में भटकता है || १७८८ || गा० टी० - मोहसे आच्छादित यह जीव दुःखसे बचनेका उपाय करता है और इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा रखता है और उसके लिये हिंसा आदि दोषों को करता है । आशय यह है कि दुःखसे डरता है किन्तु समस्त दुःखोंके विनाशका उपाय नहीं जानता । यद्यपि दुःखोंको दूर करना चाहता है किन्तु हिंसा आदि पापोंमें प्रवृत्त होता है जो दुःखके हेतु हैं । इन्द्रिय सुखका लम्पटी होते हुए उन्हीं हिंसा आदि पापोंमें लगा रहता है जो दुःखके कारण हैं । इसलिये उसका सब काम दुःखका ही मूल होता है || १७८९ || गा०-उन हिंसा आदि दोषोंको करनेसे जीव बहुत-सा नया कर्म बाँधता है । कर्मबन्धके पश्चात् उस कर्मका फल भोगता है । इस प्रकार जैसे कोई एक आगसे निकलकर दूसरी आगमें प्रवेश करके कष्ट उठाता है, वैसे ही पूर्वबद्ध कर्मोंको भोगकर पुनः नवीन कर्मरूपी आग में जलता है ।।१७९० ।। १. भीरुनरो विशेषदुःखापायस्यापायं -आ० मु० । निःशेषदुःखापायोपायं - मूलारा० । २. कर्मनिबन्धेन -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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