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________________ ७९२ भगवती आराधना उत्सपिण्यास्तृतीयसमये जातः । एवमनेन क्रमेण उत्सर्पिणी परिसमाप्ता तथा चावसर्पिणी। एवं जन्मनैरन्तर्यमुक्तं । मरणस्यापि नैरन्तयं तथैव ग्राह्यमेवं तावत्कालपरिवर्तनं । उक्तं च 'उवसप्पिणिअवसप्पिणिसमयावलिगासु णिरवसेसासु। जादो मदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे ॥' [ बा०, अणु० २७ ] ॥१७७१।। स्पन्दनससारं निरूपयत्युत्तरगाथा अट्टपदेसे मुत्तण इमो सेसेसु सगपदेसेसु । तत्तमिव अद्धरणं उव्वत्तपरत्तणं कुणदि ॥१७७३॥ 'भट्ठपदेसे मत्तूण' अष्टौ प्रदेशान्रुचकाकारान् मुक्त्वा । 'इमो' अयं जीवः । 'सेसेसु सगपदेसेसु' शेषेषु स्वप्रदेशेषु 'तत्तमिव अद्दहणं' तप्तजलमध्यस्थतन्दुलवत् । 'उव्वत्त परतणं कुणवि' उद्वर्तनं परावर्तनं करोति । एतया गाथया स्वप्रदेशेषु संसारनामात्मनः क्षेत्रसंसारत्वेनोच्यते ॥१७७३॥ भावसंसारोत्तरप्रतिपादनार्थे गाथा लोगागासपएसा असंखगुणिदा हवंति जावदिया । तावदियाणि हु अज्झवसाणाणि इमस्स जीवस्स ॥१७७४॥ 'लोगागासपदेसा' लोकाकाशस्य प्रदेशाः। 'असंखगुणिदा' असंख्यगुणिताः। 'हवंति जावदिया यावन्तो भवन्ति । 'तावदिगाणि ह अज्झवसाणाणि' तावदध्यवसायस्थानानि भवन्ति । 'इमस्स जीवस्स' अस्य जीवस्य । जीवस्य असंख्यातलोकप्रमाणेष्वध्यवसायसंज्ञितेषु भावेषु परावृत्तिर्भावसंसारः ॥१७७४॥ दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयुके समाप्त होने पर मरा। वह जीव पुनः तीसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समयमें उत्पन्न हआ। इस क्रमसे उसने उत्सर्पिणी समाप्त की और क्रमसे अवसर्पिणी समाप्त की। अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें क्रमसे जन्मा। तथा इसी प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयोंमें मरा भी। इस सबको काल परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है कालसंसारमें भ्रमण करनेसे यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें अनेक बार जन्मा और अनेक बार मरा ॥१७७१।। आगे क्षेत्रसंसाररूप स्पन्दन संसारको कहते हैं गा०-लोकके मध्यमें स्थित गौके स्तनके आकार आठ प्रदेशोंको छोड़कर यह जीव अपने शेष प्रदेशोंमें तप्त जलके मध्यमें स्थित चावलोंकी त्रह उद्वर्तन परावर्तन किया करता है। अर्थात् जैसे आग पर रखे गर्म जलमें पड़े हुए चावल ऊपर नीचे हुआ करते हैं उसी प्रकार आठ मध्य प्रदेशोंको छोड़कर जीवके शेष प्रदेश चल रहते हैं ।।१७७३।। भाव संसारका कथन करते हैं गा०-लोककाशके प्रदेशोंको असंख्यातसे गुणा करनेपर जितनी राशि होती है उतने ही इस जीवके अध्यवसाय स्थान होते हैं। इन असंख्यात लोक प्रमाण अध्यवसाय नामक भावोंमें जीवके परावर्तनको भाव संसार कहते हैं ॥१७७४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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