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________________ ३८४ भगवतो आराधना रज्जं खेत्तं अधिवदिगणमप्पाणं च पडिलिहिताणं । गुणसाधणो पडिच्छदि अप्पडिलेहाए बहुदोसा ॥५१९।। 'रज्जं खेत्तं अधिवदिगणमप्पाणं च' राज्यं, क्षेत्रं, देशं ग्रामनगरादिकं अधिपति गणमात्मानं च । 'पडिलिहिताणं' परीक्ष्य । 'गुणसाधगो' गुणान्सम्यक्त्वादीन् साधयति यः सूरिः स । 'पडिच्छदि' प्रतिगृह्णाति । कं । क्षपकं । अन्यत्र गुणसाधणं इति पाठः । गुणान्साधयितुं उद्यतं साधु प्रतिगृह्णाति । 'अप्पडिलेहाए' उक्ताया परीक्षाया अभावे । 'बहुवोसा' बहवो दोषा भवन्ति । के ते इति चेदुच्यन्ते । निरस्ताहारतृष्णो न वेति यदि न परीक्षितः, आहारे तृष्णावान्नक्तंदिनं तमेव चिंतयतीति कथमाराधकः । क्षुत्पिपासापरीपहावष्टम्भासहनात्पूकुर्वन् धर्मदूषणं कुर्यात् । आराधनाया व्याक्षेपो भवति न वेत्यपरीक्ष्य यदि तन त्याजयति तस्यापि न कार्यसिद्धिः स्वयं च निन्द्यते जनेन । राज्यक्षेत्रादीनां शुभाशुभपरीक्षा येन कृता सोऽशुभं चे'त्पश्यति तस्य राज्यादेश्च स राज्यक्षेत्रादिकं अन्यदुद्दिश्य तं गृहीत्वा याति । तथा च तस्योपकारको भवति । अपरीक्षायां तु राज्यादिभ्रशे स च क्षपकः स्वयं च क्लिश्यति गणस्य चोपद्रवं यदि पश्यति, आत्मनो वा न प्रारभते कार्य । अपरीक्षितकारी सुरिन तस्योपकारको न चात्मन इति दोषाः ॥५१९।। परीक्षानन्तरं आपुच्छा इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे आचार्य प्रमादरहित होकर दिव्य निमित्तज्ञानके द्वारा परीक्षा करते हैं कि इसकी आराधना निर्विघ्न होगी या नहीं होगी ।।५१८।। __ गा०-टी-सम्यक्त्व आदि गुणोंका साधक वह आचार्य राज्य, क्षेत्र, अधिपति, गण, और अपनी शरीरकी परीक्षा करके क्षपकको ग्रहण करता है। अन्यत्र 'गुणसाधणं' पाठ मिलता है। उसके अनुसार आचार्य गुणोंकी साधनाके लिए उद्यत साधुको ग्रहण करता है। उक्त परीक्षा न करनेमें वहुत दोष हैं। ___ उन्हें ही कहते हैं-क्षपककी आहार विषयक तृष्णा दूर हुई है या नहीं, ऐसी परीक्षा यदि नहीं की और क्षपक आहारमें तृष्णा रखनेवाला हुआ, तो रात दिन आहार की ही चिन्ता करनेपर कैसे आराधक हो सकता है। भूख प्यासकी परीषहों को न सहनेसे चिल्ला-चिल्लाकर धर्मको दूषित करेगा । आराधनामें विघ्न आयेगा या नहीं, इसकी परीक्षा न करके यदि उस विघ्नको दूर नहीं किया जाय तो क्षपकका भी कार्य सिद्ध न हो और स्वयं आचार्य लोगोंकी निन्दाका पात्र बने । जो आचार्य राज्य क्षेत्र आदिकी अच्छे बुरेकी परीक्षा करता है वह यदि क्षपक और राज्य आदिका अशुभ देखता है तो उस क्षपकको लेकर अन्य राज्य और अन्य क्षेत्र आदिमें चला जाता है। ऐसा करनेसे वह क्षपकका उपकार करता है। परीक्षा न करनेपर यदि राज्य आदिमें उत्पात हुआ तो क्षपक और आचार्य दोनोंको कष्ट उठाना पड़ता है। यदि गणका या अपना अनिष्ट देखता है तो आचार्य कार्यका प्रारम्भ नहीं करता। अतः विना परीक्षा किए कार्य करनेवाला आचार्य न क्षपकका उपकार करता है और न अपना उपकार करता है ॥५१९|| परीक्षाके अनन्तर 'आपृच्छा' का कथन करते हैं १. चेन्न प-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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