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________________ ८४६ भगवती आराधना - 'जह इंधणेहिं अग्गी' इन्धनैर्यथाग्निवर्द्धते तैविना प्रशाम्यति । ग्रन्थैस्तथा कषायो वद्धते, तविना मन्दो भवति ॥१९०७॥ जह पत्थगे पडतो खोमेइ दहे पसण्णमवि पंकं । खोभेइ पसण्णमवि कसायं जीवस्स तह गंथो ।।१९०८।। 'जह पत्थरो पडतो' यथा पाषाणः पतन् ह्रदे प्रशान्तमपि पकं क्षोभयति, तथा जीवस्य कषायं ग्रन्थाः क्षोभयन्ति ॥१९०८॥ अब्भंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे चयदि । __ अभंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हु गंथे ॥१९०९।। 'अब्भंतरसोधीए' अभ्यन्तरशुद्धया नियमेन बाह्यान्परिग्रहांस्त्यजति, अभ्यन्तरमलिन एव बाह्यान् गृह्णाति परिग्रहान् ॥१९०९।। अब्भंतरसोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण । अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे ॥१९१०।। 'अभंतरसोधीए' अभ्यन्तरशुद्धया बाह्यशुद्धिनियमेन भवति । अभ्यन्तरदोषेणैव बाह्यान्कायगतान् दोषान् करोति ॥१९१०॥ जध तंडुलस्स कोण्डयसोधी सतुसस्स तीरदि ण कादु। तह जीवस्स ण सका लिस्सासोधी ससंगस्स ॥१९११॥ 'जह तंदुलस्स' यथा तन्दुलस्य अभ्यन्तरमलशुद्धिः कर्तुं न शक्यते बाह्यतुषसहितस्य । तथा जीवस्य न शक्या लेश्याशुद्धिः कर्तुं सपरिग्रहस्य ॥१९११॥ इत उत्तरं लेश्याश्रयेणाराधनाविकल्पो निरूप्यते सुक्काए लेस्साए उक्कस्सं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हु णियमा उक्कस्साराधओ होई ॥१९१२।। गा०-जैसे इंधनसे आग बढ़ती है और ईंधनके अभावमें बुझ जाती है वैसे ही परिग्रहसे कषाय बढ़ती है और परिग्रहके अभावमें मन्द हो जाती है ।।१९०७॥ __ गा०-जैसे जलमें पत्थर फेंकनेसे नीचे बैठी हुई कीचड़ ऊपर आ जाती है। वैसे ही परिग्रहसे जीवकी दबी हुई कषाय उदयमें आ जाती है ।।१९०८॥ गा०-अन्तरंगमें कषायकी मन्दता होनेपर नियमसे बाह्य परिग्रहका त्याग होता है। अभ्यन्तरमें मलिनता होनेपर ही जीव बाह्य परिग्रहोंको ग्रहण करता है ॥१९०९।। गा०-अभ्यन्तरमें विशुद्धि होनेपर बाह्य विशुद्धि नियमसे होती है । अभ्यन्तरमें दोष होनेसे ही मनुष्य शारीरिक दोष करता है ॥१९१०॥ गा०-जैसे बाहरमें तुष (छिलका) रहते हुए चावलकी अभ्यन्तर शुद्धि संभव नहीं है। वैसे ही परिग्रही जीवके लेश्याकी विशुद्धि संभव नहीं है ॥१९११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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