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________________ ३७४ . भगवती आराधना गदति । मदीया बहिश्चराः प्राणा गुरुरयमिति या संभावना साद्य नष्टेति चिन्ता विपरिणामः 'उधावेज्ज वा' त्यजेद्वा रत्नत्रयं दोषप्रकटनेन कूपितः । 'गच्छेज्ज वा' गणान्तरं प्रविशेत् ।।४९२।। आत्मपरित्यागं व्याचष्टे कोई रहस्सभेदे कदे पदोसं गदो तमायरियं । उद्दावेज्ज व गच्छं भिंदेज्ज व होज्ज पडिणीओ ॥४९३।। 'कोई' कश्चित् । 'रहस्सभेदे कदे' रहस्यभेदे कृते । 'पदोसं गदो' प्रद्वेषं गतः । 'तमायरियं' तमाचायं । 'उद्दावेज्ज व' मारयेत् । 'गच्छभिदेज्ज' गणभेदं कुर्यात् । किमनेन सूरिणा स्नेहरहितेन, यथा ममापराधं प्रकटितवान् एवं युष्मानपि निवेदितापराधान्दूषयिष्यतीति ब्रुवन् । 'होज्ज पडिणीओ' प्रत्यनीको भवेत् ॥४९३॥ गणत्यागं कथयति जह धरिसिदो इमो तह अम्हं पि करिज्ज घरिसणमिमोत्ति । सव्वो वि गणो विप्परिणमेज्ज छंडेज्ज वायरियं ॥४९४॥ 'जह घरिसिदो इमो' यथा दुषितोऽयं । 'तह' तथा । 'अम्हं पि करेज्ज घरिसणमिमोत्ति' 'अस्मद् दूषणं कुर्यात् अयमिति । 'विप्परिणमेज्ज' पृथग्भवेत् । 'छ डेज्ज वायरियं' त्यजेद्वाचायं । 'नत्वनेन सूत्रेण गण आचार्य त्यजतीति कथ्यते तेन गणस्त्यक्त इति पूर्वसूत्रितं ततोऽनयोन संगतिरित्यत्रोच्यते । यत एव सूरिणा प्रिय होता तो यह मेरे दोष क्यों कहता। यह गुरु मेरे बाहरमें चलते-फिरते प्राण हैं ऐसा जो मैं सोचता था वह आज नष्ट हो गया, इस प्रकारको चिन्ता विपरीत परिणाम है। अथवा दोष प्रकट कर देनेसे कुपित होकर रत्नत्रयको छोड़ सकता है ।।४९२॥ उस आचार्यने आत्माका त्याग कैसे किया, यह कहते हैं गा०-रहस्यभेद करनेपर कोई क्षपक द्वषो बनकर उस आचार्यको मार सकता है। अथवा गणमें भेद डाल सकता है कि इस स्नेहरहित आचार्यसे क्या लेना देना है ? जैसे इसने मेरा अपराध प्रकट कर दिया उसी प्रकार तुम्हें भी अपराध निवेदन करने पर दोष लगायेगा। ऐसा कहकर अन्य साधुओंको विरोधी बनाकर गणमें भेद डाल सकता है। अथवा विरोधी हो सकता है ॥४९३|| उस आचार्यने गणका त्याग कैसे किया, यह कहते हैं गा०-जैसे इस आचार्यने अमुक साधुका दोष प्रकट किया उसी प्रकार यह हमारा दोष भी प्रकट कर देगा, ऐसा सोचकर समस्त गण गणसे अलग हो सकता है अथवा आचार्यका त्याग कर सकता है। टी०-शंका-इस गाथामें तो कहा है कि गण आचार्यको छोड़ देता है और पूर्व गाथा में कहा है कि आचार्यने गणका त्याग किया। इन दोनों कथनोंकी संगति नहीं बैठती ? १. 'अस्मान् दूषितान् कुर्यात्'-आ० मु० । २. बंधनेन सूत्रेण-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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