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________________ भगवती आराधना परिभ्रमतः उपकारापेक्षा हि ते। यदि त एव अन्यदा कृतापकारा इति किन्नारयः ? अरयोऽपि कदाचिदुपपादितानुग्रहा इति किं न बंधवः ? अपि च स्नेहस्य सर्वासंयममूलस्य हेतुतया सन्मार्गप्रतिबंधकारितया च ते एव महाशत्रवः । किं च पुण्योदयावेव संपद्यते सकलं सुखं सुखहेतुवस्तुसान्निध्यं च । विपुण्यस्य न ते किंचिदपि कतु क्षमाः । न च कुर्वन्ति । तथा हि-मातरं त्यजति पुत्रः सा च सुतं । तथाऽसत्यसद्वद्योदये न कश्चित्किचिदप्यपकारं करोति । बाह्या हि शत्रवो नाभ्यंतरकर्मणि असति पीडामुपजनयन्ति । इत्येवंभता सर्वत्र समचित्तता सामण्णं । 'साधू वि' साधुर पि । 'कुगदि' करोति । 'णिच्चमवि' नित्यमपि सर्वदापि । 'जोगपरिकम्म योगशब्दोऽनेकार्थः । 'योगनिमित्तं ग्रहणं' इत्यात्मप्रदेशपरिस्पंदं त्रिविधवगणासहायमाचष्टे । क्वचित्संबंधमात्रवचनः 'अस्यानेन योग' इति । क्वचिद्धयानवचनः यथा 'योगस्थित' इति । इहायं परिगृहीतः । ततो ध्यानपरिकरं करोतीति यावत् । रागद्वेषमिथ्यात्वासंश्लिष्टं अर्थयाथात्म्यस्पशि प्रति निवृत्तविषयांतरसंचारं ज्ञानं ध्यानमित्युच्यते । अभावितसमानभावोऽनधिगतवस्तुसद्भावश्च न ध्यातुं क्षम इति भावः । "तो' ततः पश्चाज्जितकरणो' इत्यत्र करणशब्दः अंतःकरणे मनसि वर्तते । ततोऽयमर्थः स्ववशीकृतचित्तोऽहं मरणे भवपर्यायनाश वेलायां। 'झाणसमत्थो' ध्यानस्यैकाग्रचिन्तानिरोधस्य । ध्यानशब्दोऽत्र प्रशस्तध्यानविषये ग्राह्यो नाऽशुभयो रकतिर्यग्गति निवर्तनप्रवणयोः । योगे परिकर्मणि सदात्मनः प्रवृत्तत्वात् अयत्नसाध्यता धर्मशुक्लयोनिवर्तने 'समत्थो' शक्तः भविस्संति' भविष्यामीति ।। उदय हेतु है । बन्धु कोई नियत नहीं हैं । संसारमें भ्रमण करते हुए जीवका जो उपकार करते हैं वे बन्धु कहे जाते हैं । यदि वे ही कभी अपकार करते हैं तो शत्रु हो जाते हैं। शत्रु भी कभी-कभी उपकार करते हैं तो वे बन्धु क्यों नहीं हैं ? तथा स्नेह समस्त असंयमका मूल हेतु और सन्मार्गमें रुकावट डालने वाला है। अतः जिन्हें हम बन्धु मानते हैं वे ही महाशत्रु हैं । तथा पुण्यकर्मके उदयसे ही सर्व सुख और सुखकारक वस्तुओंकी प्राप्ति होती है । जो पुण्यहीन है उसको सुखके साधन भी कुछ नहीं कर सकते । माता पुत्रको त्याग देती है और पुत्र माताको त्याग देता है। तथा असाता वेदनीयके उदयके अभावमें कोई किंचित् भी अपकार नहीं कर सकता। अभ्यन्तर कर्मके अभावमें बाह्य शत्रु पीड़ा नहीं पहुंचाते। इस प्रकारसे सर्वत्र समचित्तताको सामण्ण कहते हैं । 'जोगपरिकम्म'में योग शब्दके अनेक अर्थ हैं । 'योगनिमित्तं ग्रहणं' यहाँ मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होने वाले आत्माके प्रदेशोंके हलनचलनको योग कहा है। कहीं योग शब्दका अर्थ सम्बन्धमात्र है । जैसे 'इसका इसके साथ योग है।' कहीं योगका अर्थ ध्यान है । जैसे 'योगस्थित' में योगका अर्थ ध्यान है । यहाँ योगका अर्थ ध्यान लिया है। राग-द्वेष और मिथ्यात्व से अछूते, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करने वाले और अन्य विषयोंमें संचार न करने वाले ज्ञानको ध्यान कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जिसने समानताको भावना नहीं भायी है और न वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जाना है वह ध्यान नहीं कर सकता । 'जितकरणो' में करण शब्द अन्तःकरण मनके अर्थमें हैं । अतः यह अर्थ हुआ कि 'मरते समय मेरा चित्त मेरे वशमें है' । 'झाणसमत्थो' में ध्यान शब्दका अर्थ एक ही विषयमें चिन्ताका निरोध करना है। यहाँ ध्या ध्यान ग्रहण करना, नरक गति और तिर्यञ्चगतिमें ले जाने वाले अशुभ ध्यान नहीं लेना। योगके परिकर्ममें तो आत्मा सदा लगा रहता है अतः उसके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता । यहाँ योगसे शुभध्यान लिया गया है। अतः उसका परिकर्म-अभ्यास करना होता है जिससे मरते समय मैं १. ग्राह्यो शुभ-अ० आ० ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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