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________________ भगवती आराधना शिष्या यत्र न जायंते तच्च । 'संजमघातो व जत्थं' संयमस्य चोपधातो यत्र क्षेत्रे 'तं वज्जो' त्यजेति गणिशिक्षा ।। गणिसिक्खा ॥२९७॥ गणं शिक्षयत्युत्तरप्रबंधेन कुणह अपमादमावासएसु संजमतवोवधाणेस । णिस्सारे माणुस्से दुल्लहबोहिं वियाणित्ता ।।२९८।। 'कुणह अपमादमावासगेसु' कुरुताप्रमादमावश्यकेषु । 'संजमतवीवधाणेसु' संयमस्य, तपसश्वाश्रयेषु । अयहितः संयम इति पूर्वनिपातः । संयम विना न तपः शक्नोति कर्तुं मुक्तिमिति सामायिकादौ प्रवर्तमानस्य संयमो भवति । असंयमं त्यजतीति, सावद्यक्रियानिवृत्तौ सत्यां कर्माणि तपतीति तपो भवति । नान्यथेति तपसोऽप्याश्रयः । “णिस्सारे माणुस्से' साररहिते मानुष्ये अनित्यतया अशुचितया मनुजानां असारं । तत्र 'दुर्लभा बोधिं' दुर्लभां दीक्षाभिमुखां बुद्धि । 'विजाणित्ता ज्ञात्वा ॥२९८॥ समिदा पंचसु समिदीसु सव्वदा जिणवयणमणुगदमदीया । तिहिं गारवेहिं रहिदा होह तिगुत्ता य दंडेसु ॥२९९।। सम्यक्प्रवृत्ताः 'होह' भवत । ‘पंचसु समिदिसु' पञ्चसु समितिषु । 'सव्वदा' सर्वदा । जिणवयणमणुगदमदीगा' जिनवचनमनुगतबुद्धयः । तिहिं गारवेहि रहिया' गारवत्रयरहिताः 'सिगुत्ता य' गुप्तित्रयसमन्विताः भवत । 'क्व दंडेसु' अशुभमनोवाक्कायेषु ॥२९९॥ सण्णाउ कसाए वि य अट रुदं च परिहरह णिच्चं । दुट्ठाणि इंदियाणि य जुत्ता सव्वप्पणो जिणह ॥३०॥ दुष्ट हो उस क्षेत्रको त्याग दो। जिस क्षेत्रमें प्रव्रज्या प्राप्त न हो अर्थात् शिष्य न बनें, अथवा जिस क्षेत्रमें संयमका घात हो उस क्षेत्रको त्याग दो ॥२९७॥ आचार्य शिक्षा समाप्त हुई। आगे गण (संघ) को शिक्षा देते हैं गा०-टी०-मनुष्य जन्म अनित्य और अशुचि होनेसे सार रहित है। उसमें दीक्षा धारण करनेकी बुद्धि होना दुर्लभ है ऐसा जानकर आवश्यकोंमें, जो संयम और तपके आश्रय है, प्रमाद मत करो। यहाँ पूज्य होनेसे संयमको तपसे पहले रखा है क्योंकि संयमके बिना अकेला तप मुक्ति नहीं प्राप्त करा सकता । सामायिक आदिमें प्रवर्तमान मुनिके संयम होता है। असंयमको वह त्यागता है। सावद्य क्रियाकी निवृत्ति होने पर कर्मोंको तपनेसे तप होता है। संयमके बिना तप नहीं होता । अतः आवश्यक कर्म तपके भी आश्रय हैं । इसलिए साधुको उनमें प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥२९८|| गा०-हे मुनिगण ! आप सर्वदा पाँच समितियोंके पालनमें तत्पर रहें। अपनी बुद्धिको जिनागमकी अनुगामिनी बनाओ। तीन गारव मत करो और अशुभ मन वचन कायके विषयमें तीन गुप्तियोंका पालन करो ॥२९९।। गा०-नित्य आहारादि विषयक संज्ञाओंको, कषायोंकों और आर्त तथा रौद्रध्यानंको दूर करो । तथा ज्ञान और तपसे युक्त होकर अपनी सर्वशक्तिसे दुष्ट इन्द्रियोंको जीतो ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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