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________________ . विजयोदया टोका २७५ 'सण्णाओं' संज्ञा आहारादिविषयाः । 'कसाए वि' कषायानपि । 'अद्रं रुईच' आत रौद्रं च ध्यानं । 'परिहरत' निराकुरुत । 'णिच्चं' नित्यं । 'दुट्ठाइं इंदियाई' दुष्टानीन्द्रियाणि च । 'जुत्ता' युक्ता ज्ञानेन तपसा च । 'सव्वप्पणा जिणह' सर्वशक्त्या इन्द्रियजयं कुरुत ।।३००॥ · धण्णा हु ते मणुस्सा जे ते विसयाउलम्मि लोयम्मि । विहरति विगदसंगा णिराउला णाणचरणजुदा ॥३०१॥ 'धण्णा हु ते मणुस्सा' धन्यास्ते मनुष्याः । के ? 'जे विसयाउलम्मि लोयम्मि' ये शब्दादिभिराकीणे जगति । 'विगदसंगा' निःसंगाः क्वचिदपि विषये स्पर्शादौ । 'णिराउला' | 'णाणचरणजुदा' ज्ञानेन चारित्रेण च युताः । ज्ञानचारित्रयुतानां प्रशंसा तत्रादरज'ननार्था गणस्य ॥३०१॥ सुस्सूसया गुरूणं चेदियभत्ता य विणयजुत्ता य । सज्झाए आउत्ता गुरुपवयणवच्छला होह ॥३०२।। _ 'सुस्सूसगा गुरूण' सम्यग्दर्शनज्ञांनचारित्रः गुणगुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः । तेषां शुश्रूषाकारिणो भवत । शुश्रूषापरेण भाव्यं । लाभादिकमनपेक्ष्य तेषां गुणेष्वनुरागः कृतो भवति । गुणानुरागाद्दर्शनशुद्धिस्तदीयरत्नत्रयानुमननं च भवति । सुकरो पायः पुण्यार्जने अनुमननं नाम । 'चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रतिबिंवानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ताः । यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाद्वेषो रागश्च जायते । यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुस्मरणे निमित्ततास्ति तद्वज्जिनसिद्धगुणाः अनन्तज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न सन्ति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयन्ति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मकं ज्ञानदर्शने सन्निधापयति । ते च .. गा०-वे मनुष्य धन्य हैं जो शब्दादि विषयोंसे व्याप्त जगत्में किसी भी स्पर्शादि विषयमें आसक्ति नहीं रखते और निराकुल होकर ज्ञान और चारित्रसे युक्त होते हैं। जो ज्ञान और चारित्रसे युक्त होते हैं उनकी प्रशंसा करनेसे संघका उनके विषयमें आदरभाव उत्पन्न होता है ।।३०१॥ गा०टी०–सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र नामक गुणोंसे महान् होनेसे आचार्य उपाध्याय और साधुको गुरु कहते हैं । उनकी सेवामें तप्पर रहना चाहिए । लाभ आदिकी अपेक्षा न करके उनके गुणोंमें अनुराग करना चाहिए। गुणोंमें अनुराग करनेसे सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है और उनके रत्नत्रयकी अनुमोदना होती है। अनुमोदना पुण्य उपार्जन करनेका सरल उपाय है। चैत्य अर्थात् जिन और सिद्धोंकी कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिबिम्बोंमें भक्ति के चाहिए । जैसे शत्रुओं और मित्रोंकी प्रतिकृति देखनेसे द्वष और राग उत्पन्न होता है। यद्यपि वे प्रतिकृतियाँ कोई अपकार या उपकार नहीं करतीं, तथापि उन शत्रुओं और मित्रोंने जो अपकार या उपकार किये होते हैं उनके स्मरणमें उनकी प्रतिकृतियाँ निमित्त होती हैं । उसी तरह यद्यपि 'प्रतिबिम्बोंमें जिन और सिद्धोंके गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, सम्यक्त्व वीतरागता आदि नहीं होते, तथापि उनके समान होनेसे उनके गुणोंका स्मरण कराती हैं। और वह गुणोंका स्मरण जो १. जननार्थ गणस्य-आ० । जननसमर्था गणस्य मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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