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________________ विजयोदया टीका ६१५ कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पत्थेइ परवधादीयं । जह उग्गसेणघादे कदं णिदाणं वसिडेण ॥१२१२॥ 'कुद्धो वि' क्रुद्धोऽपि । 'अप्पसत्यं' परवधादिकं । 'मरणे' मरणकाले। 'पत्थेवि' प्रार्थयते । 'जधा' यथा 'उग्गसेणघावे' उग्रसेनमरणे । 'कदं णिदाणं' कृतं निदानं 'वसिट्रेण' वसिष्ठेन यतिना ॥१२१२॥ भोगनिदाननिरूपणा देविगमाणुसभोगे णारिस्सरसिद्विसत्थवाहत्तं । केसवचक्कघरत्तं पत्थंते होदि भोगकदं ॥१२१३॥ 'देविगमाणुसभोगे' देवेषु मनुजेषु च भवान्भोगान् । 'पत्थेते' अभिलषति । 'भोगकदं' भोगकृतं निदानं । 'णारिस्तरसिद्धिसत्यवाहत्तं' नारीत्वं, ईश्वरत्वं, श्रेष्ठित्वं, सार्थवाहत्वं च । 'केसवचक्कधरतं' वासुदेवत्वं सकलचक्रवर्तित्वं च वाञ्छति भोगार्थ । भोगनिदानं भवति ॥१२१३॥ संजम सहरारूढो घोरतवपरक्कमो तिगुत्तो वि ।। पगरिज्ज जइ णिदाणं सोवि य वड्ढेइ दीहसंसारं ॥१२१४॥ 'संजमसिहरारूढो' संयमः शिखरमिव दुरारोहत्वादचलत्वाद्वा । एतदुक्तं भवति । प्रकृष्टसंयमोऽपि । 'घोरतवपरकम्मो' घोरे तपसि पराक्रम उत्साहो यस्य सोऽपि दुर्घरतपोऽनुष्ठाय्यपि । 'तिगुत्तो वि' गुप्तित्रयसमन्वितोऽपि । 'पगरिज्ज जइ णिवाणं' निदानं यदि कुर्यात् । “सो विय' व्यावणितगुणोऽपि 'वड्ढेइ' वर्धयति संसारमात्मनः । किमपरस्मिन्निदानकारिणि वाच्यम् ।।१२१४॥ . जो अप्पसुक्खहे, कुणइ णिदाणमविगणियपरमसुहं । सो कागणीए विक्केइ मणिं बहुकोडिसयमोल्लं ।।१२१५॥ गा०-क्रोध कषायके वश होकर भी कोई मरते समय दूसरेका बध करनेकी प्रार्थना करता है । जैसे वशिष्ठ ऋषिने उग्रसेनका घात करनेका निदान किया था ॥१२१२।। विशेषार्थ-वशिष्टतापसने उग्रसेनको मारनेका निदान किया था। इस निदानके फलसे वह मरकर उग्रसेनका पुत्र कंस हुआ। और उसने पिताको जेल में डालकर राज्यपद प्राप्त किया। पीछे कृष्णके द्वारा स्वयं भी मारा गया ॥१२१२।। भोगानिदानका कथन करते हैं गा०-देवों और मनुष्योंमें होनेवाले भोगोंकी अभिलाषा करना तथा भोगोंके लिए नारीपना, ईश्वरपना, श्रेष्ठिपना, सार्थवाहपना, नारायण और सकल चक्रवर्तीपना प्राप्त होनेकी वांछा करना भोगनिदान है ।।१२१३।। गा०-टी०-संयम पर्वतके शिखरके समान हैं क्योंकि जैसे पर्वतका शिखर अचल और दुःखसे चढ़ने योग्य है वैसा संयम भी है। उस संयमपर जो आरूढ है अर्थात् उत्कृष्ट संयमका धारी है, घोर तप करने में उत्साही है अर्थात् दुर्धर तप करता है और तीन गुप्तियोंका धारी है, वह भी यदि निदान करता है तो अपना संसार बढ़ाता है, फिर दूसरे निदान करनेवालेका तो कहना ही क्या है ॥१२१४॥ Jain Education International For Private &Personal use only . www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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