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________________ भगवती आराधना वदभंडभरिदमारुहिदसाधुसत्थेण पत्थिदो समयं । णिव्वाणभंडहेदु सिद्धपुरी साधुवाणियओ ॥१२८३।। 'ववभंडभरिवं' व्रतभाण्डपूर्ण । 'साघुसत्येण पत्थिदो समगं' साधुसार्थेन सह प्रस्थितः। किं प्रति ? सिद्धिपुरं । 'निव्वाणभंडहेर्नु' निर्वाणद्रव्यनिमित्तं । 'साधुवाणियगो' क्षपकसाधुवणिक् ॥१२८३।। आयरियसत्यवाहेण णिच्चजुत्तेण सारविज्जंतो। सो साहुवग्गसत्थो संसारमहाडविं तरहः॥१२८४॥ 'आयरियसत्थवाहेण' आचार्यसार्थवाहेन । 'णिच्चजुत्तेण' सर्वदानपायिना । 'सारविज्जतो' 'संस्र यमाणः ॥१२८४॥ तो भावणादियंतं रक्खदि तं साधुसत्थमाउत्तं । इंदियचोरेहिंतो कसायबहुसावदेहिं च ॥१२८५।। 'तो' ततः । 'भावणादियंतं रक्खदि' भावनादिभिः प्रयत्न रक्षति । 'तं साधुसत्यं' तं साधुसार्थ । 'आउतं' आयुक्तं आत्मना । कुतो रक्षति इत्याशङ्कायां उत्तरं-'इंदियचोरेहितो' इन्द्रियचौरेभ्यः । 'कसायबहुसावदेहि वा' कषायबहुश्वापदेभ्यश्च ॥१२८५॥ विसयाडवीए मज्झे ओहीणो जो पमाददोसेण । इंदियचोरा तो से चरित्तभंडं विलुपंति ॥१२८६॥ "विसयाडवीए मझे' स्पर्शरसरूपगन्धशब्दादिविषया अटवीव ते दुरतिक्रामणीयाः । तस्या विषयाटव्या मध्ये । 'जो ओहीणों' यः साधुरपसृतः । 'पमाववोसेण' प्रमादाख्येन दोषेण । 'इंदियचोरा' इन्द्रियाख्याश्चोराः । 'से' तस्यापसृतस्य साधुवणिजः । 'चरित्तभंड' चरित्रभाण्डं । "विलुपंति' अपहरन्ति । सन्निहितमनोज्ञामनोज्ञविषयजाः इन्द्रियमत्यनुयायिनो रागद्वषाश्चारित्रं विनाशयन्ति प्रमादिनः । आचार्यस्तु ध्याने स्वाध्याये प्रवर्तयन् प्रमादमपसारयतीति नेन्द्रियचौरर्बध्यते इति भावः ॥१२८६॥ समितिरूपी बैल जुड़े हैं, तीन गुप्तिरूपी उसके मजबूत चक्के हैं। रात्रि भोजनसे निवृत्तिरूप दो दीर्घ दण्डे हैं । सम्यक्त्वरूपी अक्ष है समीचीनज्ञानरूपी धुरा है ॥१२८२-८३॥ ___ गा०-आचार्य उस संघके नायक है जो निरन्तर सावधान हैं। उनके द्वारा बार-बार सन्मार्गमें लगाया गया वह आराधक साधु समुदाय संसाररूपी महावनको पार करता है ।।१२८४॥ गा०-वह संघपति आचार्य अपने द्वारा भावना आदिमें नियुक्त उस साधु समुदायकी इन्द्रियरूपी चोरोंसे और कषायरूपी अनेक जंगली हिंसक जानवरोंसे रक्षा करता है ॥१२८५।। ___ गा०-टी०-स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द आदि विषय अटवीके समान बड़े कष्टसे लांघे जाते हैं इसलिए उन्हें अटवी (घोर वन की उपमा दी है। उस विषयरूपी अटवीके म साधु प्रमाद दोषसे जाता है उसके चारित्ररूपी धनको इन्द्रियरूपी चोर चुरा लेते हैं । अर्थात् प्राप्त इष्ट अनिष्ट विषयोंको लेकर इन्द्रिय बुद्धिके अनुसार उत्पन्न हुए रागद्वेष उस प्रमादी मुनिके चारित्रको नष्ट कर देते हैं। किन्तु आचार्य ध्यान और स्वाध्यायमें लगाकर प्रमादोंको दूर करता १. संस्क्रियमाण-मु०, मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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