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________________ ६४१ विजयोदया टोका अहवा तल्लिच्छाई कूराइ कसायसावदाई तं । खज्जति असंजमदाढाहिं संकिलेसादिदंसेहिं ॥१२८७।। 'अहवा' अथवा । तल्लिच्छाई' अपसृतजनलिप्सावन्तः । 'कूराई' क्रूराः । 'कसायसावदाई' कषायव्यालमृगाः । तं अपसृतं । 'खुज्जति' भक्षयेयुः । 'असंजमवाढाहिं' असंयमदंष्ट्राभिः । 'संकिलेसादिदंसेहि' संक्लेशादिदंशश्च । इन्द्रियाणां कषायाणां वा वशे निपतत्यसति निर्यापके सूराविति भावः ॥१२८७॥ . तयोरिन्द्रियकषाययोः प्रवृत्तिरनेकदोषमूलेति कथयति ओसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो असंजदो होइ। सिद्धिपहपच्छिदाओ ओहीणो साधुसत्थादो ॥१२८८॥ इदियकसायगुरुगत्तणेण सुहसीलभाविदों समणो । करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओं ॥१२८९।। 'इदियकसायगुरुगत्तणेण' तीवेन्द्रियकषायपरिणामतया । 'सुहसीलभाविदो समणो' सुखसमाधिभावितः श्रमणः । 'करणालसो' त्रयोदशविधासु क्रियासु अलसः । 'भवित्ता' भूत्वा । 'सेवदि' सेवते । 'ओसण्णसेवाओं' अवसन्नसेवाः भ्रष्टचारित्राणां क्रियासु प्रवर्तते इति यावत् । ओसण्णो ।।१२८९।। केई गहिदा इंदियचोरेहिं कसायसावदेहिं वा । पंथं छंडिय णिज्जंति साघुसत्थस्स पासम्मि ॥१२९०॥ _ 'केई गहिदा इंदियचोरेहि' केचिद्गृहीता इन्द्रियचौरः । 'कसायसावदेहिं तहा' तथा कषायश्वापदश्च गृहीताः । 'साधुसत्थस्स पंथं छंडिय' साधुसार्थस्य पन्थानं त्यक्त्वा । 'पासम्मि णिज्जंति' पावें यान्ति ॥१२९०॥ है इसलिए इन्द्रिय चोर नहीं सताते, यह उक्त कथनका भाव है ।।१२८६।। ___गा०-अथवा उस विषयरूपी अटवीमें फंसे हुए लोगोंको खानेके इच्छुक क्रूर कषायरूपी सिंहादि उस आगत साधुको असंयमरूपी दाढोंसे और रागद्वेष मोहरूपी दाँतोंसे खा जाते हैं। कहनेका भाव यह है कि निर्यापकाचार्यके अभावमें क्षपक इन्द्रियों और कषायोंके फन्देमें फंस जाता है ॥१२८७|| आगे कहते हैं कि इन्द्रिय और कषायकी प्रवृत्ति अनेक दोषोंका मूल है गा०-जो साधु चारित्र भ्रष्ट साधुओंकी क्रिया करता है वह असंयमी होकर साधुओंके संघसे बाहर हो जाता है और मोक्षमार्गसे दूर हो जाता है ।।१२८८॥ ____ गा०-इन्द्रिय और कषायरूप तीव्र परिणाम होनेसे सुखपूर्वक समाधिमें लगा साधु तेरह प्रकारकी क्रियाओंमें आलसी होकर चारित्र भ्रष्ट साधुओंकी क्रिया करने लगता है ऐसा साधु अवसन्न कहलाता है ।।१२८९।। गा०-कोई साधु इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी हिंसक जीवोंके द्वारा पकड़े जाकर साधु संघके मार्गको छोड़कर साधुओंके पार्श्ववर्ती हो जाते हैं । साधु संघके पार्श्ववर्ती होनेसे इन्हें पासत्थ या पार्श्वस्थ कहते हैं ।।१२९०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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