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________________ विजयोदया टीका पभट्ठबोधिलाभा मायासल्लेण आसि पूदिमुही। दासी सागरदत्तस्स पुप्फदंता हु विरदा वि ।।१२८०॥ 'पन्भट्टबोधिलाभा' प्रभ्रष्टो विनष्टो दीक्षाभिमुखबुद्धिलाभो यस्याः सा प्रभ्रष्टबोधिलाभा । 'आसी' आसीत् । का ? "पूदीमुही' पूतिमुखीसंज्ञिता । 'सागरवत्तस्स दासी' सागरदत्तवैश्यस्य दासी । केन ? 'मायासल्लेण' मायाशल्येन । 'पुप्फदंता हु विरवा वि मायासल्लेण पन्भट्ठबोधिलाभा आसी' इति पदसम्बन्धाः पुष्पदत्ताख्या संयता च मायया प्रभ्रष्टबोधिलाभा आसीत् । मायाशल्यं ॥१२८०॥ मिच्छत्तसल्लदोसा पियधम्मो साधुवच्छलो संतो। बहुदुक्खे संसारे सुचिरं पडिहिंडिओ मरीची ॥१२८१।। "मिच्छत्तसल्लदोसा' मिथ्यात्वशल्यदोषात् । 'पियधम्मो' प्रियधर्मः । 'साधुवच्छल्लो संतो' साधूनां वत्सलोऽपि सन् मरीचिः । 'संसारे सुचिरं पडिहिंडिओ' संसारे सुचिरं भ्रान्तः, कीदृशे ? 'बहुदुक्ख' बहुदुःखे । मिथ्याशल्यं ॥१२८१॥ एवं निर्यापकेण सूरिणा संस्तूयमानः साधुवर्गों निर्वाणपुरं प्रविशतीति दर्शयति उत्तरप्रबन्धेन इय पन्वज्जाभंडिं समिदिबइल्लं तिगुत्तिदिढचक्कं । रादियभोयणउद्धं सम्मत्तक्ख सणाणधुरं ॥१२८२।। "इय सारमिज्जंतो साध्वग्गसत्थो साधुवणियगो संसारमहावितरदित्ति' पदघटना। व्यावणितक्रमेण संस्क्रियमाणः साधुवृन्दसार्थः संसारमहाटवीं तरति । 'पवज्जाभंडिमारुहिय पच्छिदो' प्रव्रज्याभण्डिमारुह्य प्रस्थितः, 'समिदिवइल्लं' समितिबलीवहीं, 'तिगुत्तिदिढचक्कं' त्रिगुप्तिदृढचक्रां, ‘सम्मत्तक्वं' सम्यक्त्वाक्षां, 'सणाणधुरं' समीचीनज्ञानधूर्वती ॥१२८२॥ गा०-पुष्पदन्ता नामकी आर्यिका आर्यिका होनेपर भी मायाशल्यके कारण दीक्षाके अभिमुख होनेकी बुद्धिके लाभसे भ्रष्ट होकर सागरदत्त वैश्यके घरमें पूतिमुखी नामकी दासी हुई ॥१२८०॥ विशेषार्थ-इसकी कथा वृहत्कथाकोशमें ११० नम्बरपर कही है ॥१२८०॥ मायाशल्यका वर्णन हुआ। गा०-धर्मप्रेमी और साधुओंके प्रति वात्सल्यभाव रखनेवाला मरीचिकुमार मिथ्यात्वशल्य दोषके कारण बहु दुःखपूर्ण संसारमें भ्रमता हुआ ॥१२८१।। विशेषार्थ-यह मरीचिकुमार भरतका पुत्र था जो महावीर तीर्थकर हुआ। भगवान् आदिनाथके मुखसे अपना तीर्थंकर होना सुनकर यह भ्रष्ट हो गया था ॥१२८१॥ आगे कहते हैं कि इस प्रकार निर्यापकाचार्यके द्वारा संस्तुत साधुवर्गके साथ क्षपक मोक्षनगरमें प्रवेश करते हैं गा०-इस प्रकार क्षपकसाधुरूपी व्यापारी दीक्षारूपी गाड़ीपर साधुओंके संघके साथ चढ़कर निर्वाणरूपी भाँडके लिए सिद्धिपुरीकी ओर प्रस्थान करता है। उस दीक्षारूपी गाड़ीमें १. 'इयसारमिज्जतो साधुवृन्दसार्थः संसारमहाटवीं तरति'-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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