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________________ ६३८ भगवती आराधना निरवशेषकर्मापाये । 'मदि कुज्जा' मतिं कुर्यात्, अनुष्ठीयमानेन चारित्रेण तपसा वा कर्मक्षयोऽस्तीति मति कुर्यात्, न निदानं कुर्यादित्यर्थः ।।१२७६॥ निदानदोषं विस्तरत उपदर्य अनिदानत्वे गुणं व्याचष्टे अणिदाणो य मुणिवरो दसणणाणचरणं विसोधेदि । तो सुद्धणाणचरणो तवसा कम्मक्खयं कुणइ ।।१२७७।। 'अणिवाणो य मुणिवरो' अनिदानो यतिवृषभः, 'दंसणणाणचरणं' रत्नत्रयं, विसोधेदि' विशोधयति, निदानाभावादनतिचारं सम्यग्दर्शनं शुद्धं भवति, तस्मिन्निर्मले निर्मलं ज्ञानं, निर्मल विशुद्धज्ञानपुरोगं चारित्रं विशुद्धं भवति, 'तवसा कम्मक्खयं कुणदि' तपसा कर्माणि निरवशेषाणि वियोजयत्यात्मनः ॥१२७७॥ इच्चेवमेदमविचिंतयदो होज्ज हु णिदाणकरणमदी । इच्चेवं पस्संतो ण हु होदि णिदाणकरणमदी ॥१२७८।। 'इच्चेवमेदमविचितयदों' इत्येवमेतद्वस्तुजातं अविचिन्तयतः । 'होज्ज हु' भवेदेव, णिदाणकरणमदो' निदानकरणे बुद्धिः, 'इच्चेवं पस्संतो' इत्येवमेतत्पश्यन, 'न खु होदि' नैव भवति 'णिदाणकरणमवी' निदानकरणमतिः । णिदाणं ॥१२७८॥ मायासल्लस्सालोयणाधियारम्मि वण्णिदा दोसा । मिच्छत्तसल्लदोसा य पुन्वमुववणिया सव्वे ॥१२७९।। 'मायासल्लस्स' मायाशल्यस्य, 'आलोयणाधिकारम्मि' आलोचनाधिकारे 'वण्णिदा दोसा' वणिता दोषाः, 'मिच्छत्तसल्लदोसा' मिथ्यात्वशल्यदोषाश्च । 'सम्वे' सर्वे, 'पुन्वमुववण्णिदा' पूर्वमेव व्यावणिताः, शल्यप्रयगतदोषा भवतो व्यावणिता इत्यनेन सूरिरेतत्कथयति आबुद्धदोषेण शल्यत्रयं त्वया त्याज्यमिति ।।१२७९॥ मायाशल्यापरित्यागात्प्राप्तदोषमर्थाख्यानेन दर्शयतिकर्मक्षय होता है ऐसी मति करना चाहिए । निदान नहीं करना चाहिए ॥१२७६।। विस्तारसे निदानके दोष बतलाकर निदान न करने में गुण कहते हैं गा०—निदान न करने वाले मुनिवर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयको विशुद्ध करते हैं। अर्थात् निदान न करनेसे निरतिचार सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है। सम्यगदर्शनके निर्मल होने पर ज्ञान निर्मल होता है। और निर्मल विशुद्ध ज्ञान पूर्वक चारित्र विशुद्ध होता है। तब विशुद्ध ज्ञान चारित्रसे सम्पन्न मुनि तपके द्वारा सब कर्मोंका क्षय करता है ।।१२७७॥ __गा०-उक्त प्रकारसे जो वस्तुस्वरूपका विचार नहीं करता उसकी मति निदान करने में लगती है । और जो उसका विचार करता है उसकी मति निदान करने में नहीं लगती ॥१२७८।। . गा०-आलोचना अधिकारमें मायाशल्यके दोष कह आये हैं। और मिथ्यात्व शल्यके दोष पूर्वमें ही कहे हैं। इस प्रकार हे क्षपक ! तीनों शल्योंके दोष आपसे हमने कहे हैं। अब इन दोषोंको जानकर तुम्हें तीनों शल्योंका त्याग करना चाहिए। इससे आचार्य क्षपकके प्रति ऐसा कहते हैं ।।१२७९।। मायाशल्यका त्याग न करने से प्राप्त हुए दोषको दृष्टान्त द्वारा कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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