SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९३ विजयोदया टीका पव्वज्जादी सव्वं कमेण जं जत्थ जेण भावेण । पडिसेविदं तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥५३७॥ . 'पव्वज्जादी सवं' प्रव्रज्यादिकं सर्व । 'कमेण जं जत्थ जेण भावेण पडिसेविदं' क्रमेण यद्यत्र कालत्रये वा देशे येन भावेन प्रतिसेवितं । 'तहा तं' तथा तत् । आलोचितो निरूपयन्निति । यदि पदविभागी विशेषालोचना भवति ॥५३७॥ शल्यानिराकरणे दोषं शल्यापाये च गुणं दृष्टान्तेन दर्शयति जह कंटएण विद्धो सव्वंगे वेदणुधुदो होदि । तम्हि दु समुट्ठिदे सो णिस्सल्लो णिव्वदो होदि ॥५३८॥ 'जह कंटएण विद्धो' यथा कण्टकेन विद्धः । 'सव्वंगे' सर्वस्मिन् शरीरे । 'वेदणुधुदो होइ' वेदनयोपद्रुतो भवति । 'तम्हि समुट्ठिदे' तस्मिन्कण्टके उद्धृते । 'सो' दुःखितः । 'णिस्सल्लो' निःशल्यो शल्येन रहितः । 'णिव्वदो' निवृतो। 'होदि' भवतीति सुखी भवतीति यावत् ॥५३८॥ दार्शन्तिकयोजना एवमणुधुददोसो माइल्लो तेण दुक्खिदो होइ । सो चेव वंददोसो सुविसुद्धो णिव्वुदो होइ ॥५३९॥ 'एवं' कण्टकेन विद्ध इव । 'अणुधुददोसो' अनुद्धृतदोषः। 'माइल्लो' मायावान् । स्वापराधाकथनानुद्धृतदोषेण । 'दुक्खिदो होदि' दुःखितो भवति । 'सो चेव वंददोसो' स एव वान्तदोषः । 'सुविसुद्धो णिव्वुदो होदि' निर्वृतो भवति ॥५३९॥ मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं णिदाणसल्लं च । अहवा सल्लं दुविहं दव्वे भावे य बोधव्वं ॥५४०॥ 'मिच्छादसणसल्लं' मिथ्यादर्शनशल्यं । 'मायासल्लं' मायाशल्यं । 'णिदाणसल्लं' निदानशल्यं च । 'अहवा सल्लं दुविहं' अथवा शल्यं द्विप्रकारं । 'दम्वे भावे य' द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति । 'बोधन्वं' बोद्धव्यम् ॥५४०॥ गा-दीक्षासे लेकर सब कालमें सब क्षेत्रमें जिस भावसे और जिस क्रमसे जो दोष किया हो उसकी उसी प्रकार आलोचना करना पदविभागी अर्थात् विशेष आलोचना है ।।५३७॥ शल्यको दूर न करने में दोष और दूर करने में गुण दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं गा०-जैसे कण्टकसे विधा हुआ सर्वशरीरमें पीड़ासे पीड़ित होता है और उस कण्टकके निकल जानेपर वह दुःखी मनुष्य शल्यसे रहित हो सुखी होता है ॥५३८॥ गा०-उसी प्रकार जो काँटेकी तरह दोषको नहीं निकालता वह मायावी अपने अपराधको न कहने रूप दोषसे दुःखी रहता है। और वही दोषको प्रकट करनेपर विशुद्ध होकर सुखी होता है ।।५३९॥ ___गा०-शल्यके तोन भेद हैं-मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य, अथवा शल्यके दो भेद जानना-द्रव्यशल्य और भावशल्य ।।५४०।। ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy