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________________ ३९२ भंगवतो आराधना आलोयणा हु दुविहा ओघेण य होदि पदविभागी य । ओघेण मूलपत्तस्स पयविभागी य इदरस्स ॥५३५॥ 'आलोयणा खु दुविहा होदि' द्विप्रकारवालोचना भवति । 'ओघेण पदविभागीय' सामान्येन विशेषण च । वचो हि सामान्यं विशेषं चावलम्ब्य प्रवर्तते । कस्य सामान्यन आलोचना कस्य वा विशेषेणेत्यत आह'ओघेण मुलपत्तस्स सामान्यालोचना मूलाख्यं प्रायश्चित्तं प्राप्तस्य । 'पदविभागो' विशेषालोचना । 'इदरस्स' मूलमप्राप्तस्य ॥५३५॥ सामान्यालोचनाहं सामान्यालोचनास्वरूपं च कथयति आघेणालोचेदि हु अपरिमिदवराधिसव्वघादी वा। अज्जोपाए इच्छं सामण्णमहं खु तुच्छोत्ति ।।५३६।। 'ओघेणालोचेदि हु' सामान्येन कथयति । 'कोऽपरिमिदवराधी सव्वघादी वा' बहवो अपराधा यस्य मिथ्यात्वं व्रतभङ्गो वा । परसाक्षिकायां शुद्धौ मायाशल्यं निरस्तं भवति । मानकषायो निमूलितो भवति । गरुजनः प्रजितो भवति । तत्परतन्त्रया वतर्मार्गप्रख्यापना च कृता स्यात । 'अज्जोपाए' अद्यप्रभति । 'इच्छ सामण्णं' इच्छामि श्रामण्यं । 'अहं खु तुच्छोत्ति' अहं स्वल्पको रत्नत्रयेणेति इयं सामान्यालोचना ॥५३६॥ विशेषालोचनामाचष्टे- . गा०--आलोचना दो प्रकारकी होती है-एक सामान्यसे और दूसरी विशेष से । क्योंकि सामान्य और विशेषका अवलम्बन लेकर ही वचनकी प्रवृत्ति होती है। किस दोषकी सामान्यसे आलोचना होती है और किसकी विशेषसे होती है ? यह कहते हैं जिसको मूल नामक प्रायश्चित्त दिया जाता है वह सामान्यसे आलोचना करता है और जिसको मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता वह विशेष रूपसे आलोचना करता है ।।५३५।। विशेषार्थ--जिसकी मूलसे ही दीक्षा छेद दी जाती है वह अपने दोषोंकी सामान्य आलोचना करता है किन्तु जो सम्यक्त्व आदिमें दोष लगाता है वह अपने दोषकी विशेष आलोचना करता है। यहाँ सामान्यसे मतलब है किसी गुणविशेषमें लगे दोषकी आलोचना न करके सामान्य मुनिधर्म मात्रमें लगे दोषकी आलोचना करना, और किसी गुणविशेषमें लगे दोषकी आलोचना विशेष आलोचना है। सामान्य आलोचनाके योग्य कौन होता है और सामान्य आलोचनाका स्वरूप कहते हैं गा०--जो अपरिमित अपराधी है जिसने बहुत अपराध किए हैं या जिसने सब सम्यक्त्व व्रत आदि का घात किया है वह सामान्य आलोचना करता है। मैं आज से मुनि दीक्षा लेना चाहता हूँ। मैं रत्नत्रय से तुच्छ हूँ। यह सामान्य आलोचना का स्वरूप है। आचार्य आदिकी साक्षो पूर्वक शुद्धिमें मायाशल्य दूर होता है । मान कषाय जड़ से उखड़ जाती है । गुरुजनके प्रति आदर भाव व्यक्त होता है। उनके अधीन रह कर व्रताचरण करनेसे मोक्षमार्गकी ख्याति होती है ॥५३६॥ विशेष आलोचनाको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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