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________________ ३९४ भगवती आराधना तिविहं तु भावसल्लं दसणणाणे चरित्तजोगे य । सच्चित्ते य अचित्ते य मिस्सगे वा वि दव्वम्मि ॥५४१॥ 'तिविहं तु' त्रिविधं एव । 'भावसल्लं' परिणामशल्यं । 'दसणणाणे चरित्तजोगे य' दर्शने, ज्ञाने, चारित्रयोगे वा । दर्शनस्य शल्यं शंकादि । ज्ञानस्य शल्यं अकाले पठनं अविनयादिकं च । चारित्रस्य शल्यं समितिगुप्त्योरनादरः । [ 'योगस्य तपसः प्रागुक्तानशनाद्य तिचारजातं । असंयमपरिणमनं वा । तपसश्चारित्रे अन्तर्भावविवक्षया तिविहमित्युक्तम् ] 'दक्वम्मि सल्लं तिविहं' द्रव्ये शल्यं त्रिविधं । 'सचित्त अचित्ते मिस्सगे य' सचित्तद्रव्यशल्यं दासादि । अचित्तद्रव्यशल्यं सुवर्णादि । 'मिस्सगे वा' विमिश्रद्रव्यशल्यं ग्रामादि । एतत्रिविधं द्रव्यशल्यमित्युच्यते-चारित्राचारस्य शल्यस्य कारणत्वात् ॥५४१॥ भावशल्यानुद्धरणे दोषमाचष्टे- ... एगमवि भावसल्लं अणुद्धरित्ताण जो कुणइ कालं । लज्जाए गारवेण य ण सो हु आराधओ होदि ॥५४२॥ ‘एगमवि' एकमपि भावानां रत्नत्रयाणां शल्यं । अतिचारं । 'अणुद्धरित्ताण' अनुद्धृत्य । 'जो कुणदि कालं' यः करोति मरणं । कस्मान्नोद्धरति ? 'लज्जाए' लज्जया। 'गारवेण य' गारवेण वा। 'सो ण ख आराधगो होवि' स आराधको नैव भवति । निरतिचारता हि तेषां यतीनां आराधना ॥५४२।। जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेपः कार्य इति शिक्षयति कल्ले परे व परदो काहं दंसणणाणचरित्तसोधित्ति । इय संकप्पमदीया गयं पि कालं ण याणंति ॥५४३॥ 'कल्ले' श्वःप्रभृतिके काले । अहं करिष्यामि 'दंसणचरित्तसोधित्ति' दर्शनज्ञानचारित्रशुद्धिमिति । ‘इय संकप्पमदीगा' एवं कृतसंकल्पमतयः । 'गदंपि कालं ण जाणंति' गतमतिक्रान्तमपि आयुःकालं नव जानन्ति । गा०-टी-भावशल्यके तीन भेद हैं-दर्शनशल्य, ज्ञानशल्य, चारित्रयोगशल्य। शंका आदि दर्शनके शल्य हैं। अकालमें पढ़ना, विनय न करना आदि ज्ञानके शल्य हैं। समिति और गुप्तिमें अनादर चारित्रके शल्य हैं। पहले कहे अनशन आदिके अतिचार अथवा असंयमरूप परिणाम योग अर्थात् तपके शल्प हैं। तपका अन्तर्भाव चारित्रमें होता है इस विवक्षासे यहाँ भावशल्य तीन कहे हैं। द्रव्यशल्य भी तीन हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । दास आदि सचित्त द्रव्यशल्य हैं। सुवर्ण आदि अचित्त द्रव्यशल्य हैं। गाँव आदि मिश्र द्रव्यशल्य हैं। इन तीनोंको द्रव्यशल्य कहते हैं क्योंकि ये चारित्राचारके शल्यके कारण हैं ।।५४१॥ भावशल्यको दूर न करने में दोष कहते हैं गा०-जो साधु लज्जा अथवा गारवसे एक भी भाव अर्थात् रत्नत्रयके शल्य अर्थात् अतिचारको निकाले विना मरण करता है, वह मुनि आराधक नहीं है । निरतिचारता ही यतियोंकी आराधना है ॥५४२॥ ___ आगे शिक्षा देते हैं कि अपराध होनेपर तत्काल कहना चाहिए, देर नहीं करना चाहिए. गा०-टी०-कल या परसों मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी शुद्धि करूँगा ! ऐसा संकल्प १. कोष्टान्तर्गत पाठो नास्ति-अ० आ० प्रत्योः । Jain Education International -For Private &Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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