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________________ ३९५ विजयोदया टीका ततः सशल्यं मरणं तेषां भवति । अत एवोक्तं-'उप्पण्णाणुप्पण्णा माया अणुपुटवसो णिहंतव्वा' इति ।[मूलाचार ७१२५ ॥] व्याधयः शत्रवः । कर्माणि, चोपेक्षितानि बद्धमूलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यन्ते । अथवा अतिचारकालं गतं चिरातिक्रान्तं नैव जानन्ति । ये हि अतिचाराः प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, सन्ध्या रात्रिदिनं इत्यादिकं । पश्चादालोचनाकाले गरुणा 'पष्टा वा न वक्तुं जानन्ति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य । अथागतं स्वतीचारकालं तस्यातिचारस्य । अपिशब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतू न जानन्ति न स्मरन्ति । सामान्यवाच्यपि जानाति । इह स्मृतिज्ञान गोचर इति केषांचियाख्या ॥५४३।। सशल्यमरणे को दोष इत्याशङ्कायामाचष्टे रागदोसाभिहदा ससल्लमरणं मरंति जे मूढा । ते दुक्खसल्लबहुले भमंति संसारकांतारे ॥५४४।। 'रागद्दोसाभिहदा' रागद्वेषाभ्यामभिहताः । 'ससल्लमरणं' सशल्यमरणं । 'मरंति' म्रियन्ते । 'जे मूढा' ये मढास्ते 'संसारकांतारे भमंति' । ते संसाराटव्यां भ्रमन्ति । कीदशि ? 'दुक्खसल्लबहुले' दुःखानि शल्यवत् दुर्द्धरत्वाच्छल्य इत्युच्यन्ते । दुःखशल्यसङ्कुले ॥५४४॥ शल्योद्धरणे गुणं व्याचष्टे तिविहं पि भावसरलं समुद्धरित्ताण जो कुणदि कालं । पव्वज्जादी सव्वं स होइ आराधओ मरणे ॥५४५।। 'तिविहंपि' त्रिविधमपि । 'भावसल्लं' भावशल्यं । 'समुद्धरित्ताण' समुद्धृत्य । 'जो कुणदि कालं' यः कालं करोति । कीदृग्भूतं ? 'पध्वजादी' प्रव्रज्यादिकं । 'सव्वं' सर्वं । 'स होदि' स भवति । 'आराधमओ' आराधको दर्शनादीनां । 'मरणे' भवपर्यायप्रच्यवे ।।५४५॥ करनेवाले बीतते हुए आयुकालको नहीं जानते। इसीसे उनका मरण शल्य सहित होता है। इसीसे कहा है-'जैसे ही मायाशल्य उत्पन्न हो, उत्पन्न होते ही उसे आनुपूर्वीक्रमसे नष्ट कर देना चाहिए।' व्याधि, शत्रु और कर्मकी यदि उपेक्षा की जाये तो उनकी जड़ जम जाती है फिर सुखपूर्वक उनका विनाश नहीं होता। अथवा अपराधकी उपेक्षा करनेवाले साधु दोष लगनेके कालको बहुत दिन बीत जानेपर भूल जाते हैं। जो अतिचार प्रतिदिन होते हैं उनका काल सन्ध्यामें अतिचार लगा था या रातमें या दिनमें, इत्यादि भूल जाते हैं। पीछे आलोचना करते समय गुरुके पूछनेपर नहीं कह पाते क्योंकि बहुत काल बीतनेसे भूल जाते हैं। अथवा बीते अतीचारके कालको और 'अपि' शब्दसे अतिचारके हेतु क्षेत्र और भावको नहीं जानते, उन्हें • उनका स्मरण नहीं होता। ऐसी किन्हींको व्याख्या है ॥५४३।। शल्यसहित मरणमें दोष कहते हैं गा०-राग और द्वेषसे पीड़ित जो मूढ़ मुनि शल्यसहित मरते हैं वे दुःखरूपी शल्योंसे भरे संसाररूपी वनमें भटकते हैं । शल्यकी तरह दुर्द्धर होनेसे दुःखोंको शल्य कहा है ॥५४४॥ शल्यको निकालने में गुण कहते हैंगाo-जो दीक्षा लेनेके दिनसे लेकर तीन प्रकारके सब भावशल्यको निकालकर मरण १. पृष्टातावन्न आ० मु० । २. ज्ञानागोच-ज्ञानागारव आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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