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________________ विजयोदया टीका ज्ञानमपि गुणान्नाशयति नरस्य इन्द्रियकषायपरिणामदोसेण । आत्मवधाय भवति शस्त्रं कापुरुषहस्तगतं इति ।।१३३४॥ उत्तरगाथार्थ: सबहुस्सुदो वि अवमाणिज्जदि इंदियकसाय'दोसेण । णरमाउधहत्थंपि हु मदयं गिद्धा परिभवंति ॥१३३५।। 'सुवहुस्सुदोवि' सुष्ठुबहुश्रुतोऽप्यवमन्यते इन्द्रियकषायदोषेण । गृहीतास्त्रमपि नरं मृतं गृद्धाः परिभवन्ति यथा ॥१३३५।। इंदियकसायवसगो बहुस्सुदो वि चरणे ण उज्जमदि । पक्खीव छिण्णपक्खो ण उप्पडदि इच्छमाणो वि ।।१३३६॥ ____ 'इंदियकसायवसगो' इन्द्रियकषायवशगः बहुश्रुतोऽपि चारित्रे नोद्यमं करोति । यथा छिन्नपक्षः पक्षी नोत्पतति इच्छन्नपि ॥१३३६ णस्सदि सगं बहुगं पि णाणमिदियकसायसम्मिस्सं । विससम्मिसिददुद्धं णस्सदि जध सक्कराकढिदं ।।१३३७।। 'णस्सदि सगं बहुगंपि णाणं' नश्यति स्वयं बह्वपि ज्ञानं इन्द्रियकषायसंमिश्रं । शर्कराक्वथितं दुग्धं विषमिश्रमिव । माधर्यात्सातिशयता दुग्धस्य शर्कराक्वथितशब्देन कथ्यते ॥१३३७।। इंदियकसायदोसमलिणं णाणं वट्टदि हिदे से । वट्टदि अण्णस्स हिदे खरेण जह चंदणं ऊढं ॥१३३८॥ ज्ञानं यदीयं तस्मै उपकारितया प्रसिद्धमपि सन्नोपकारि भवति इन्द्रियकषायमलिनं, परोपकारित भवति खरेणोढं चन्दनादिकमिवेति सूत्रार्थः ।।१३३८॥ गा०-इन्द्रिय और कषायोंके दोषसे अच्छे प्रकारसे बहुतसे शास्त्रोंका ज्ञाता भी विद्वान् अपमानका पात्र होता है। जैसे हाथमें अस्त्रके होते हुए भी मरे मनुष्यको गृद्ध खा जाते हैं ॥१३३५॥ गा०-इन्द्रिय और कषायोंके वशमें हुआ बहुश्रुत भी विद्वान् चारित्रमें उद्योग नहीं करता । जैसे जिसका पर कट गया है ऐसा पक्षी इच्छा करते हुए भी नहीं उड़ सकता ।।१३३६।। गा०-इन्द्रिय और कषायके योगसे बहुत भी ज्ञान स्वयं नष्ट हो जाता है । जैसे शक्करके साथ कढ़ा हुआ दूध विषके मिलनेसे नष्ट हो जाता है अर्थात् अपने स्वभावको छोड़ देता है। यहाँ शक्करके साथ कढ़ाया हुआ कहनेसे मिठासके कारण दूधकी सातिशयता बतलाई है। ऐसा दूध भी विषके मेलसे हानिकर होता है ।।१३३७॥ गा०—जिसका ज्ञान होता है उसीका उपकारी होता है यह बात प्रसिद्ध है किन्तु इन्द्रिय और कषायसे मलिन ज्ञान जिसका होता है उसका उपकार नहीं करता, दूसरोंका उपकार १. यजोगेण अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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