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________________ ६५६ भगवती आराधना ज्ञानं प्रकाशकत्वमपि स्वं जहाति इन्द्रियकषायपरिणामवशादिति निगदति-- . इदियकसायणिग्गहणिमीलिदस्स हु पयासदि ण णाणं । रत्तिं चक्खुणिमीलस्स जघा दीवो सुपज्जलिदो ॥१३३९।। 'इंदियकसायणिग्गहणिमीलिदस्स' इन्द्रियकषायनिग्रहे निमीलितस्यात्मनो ज्ञानं न प्रकाशकं । 'रत्तिय' रात्राविव । 'चक्खुणिमिलिदस्स' निमीलितचक्षुषः पुंसः । 'जह दीवो सुपज्जलिदों' यथा सुप्रज्वलितः प्रदीपः ।।१३:९॥ इंदियकसायमइलो बाहिरकरणणिहुदेण वेसेण । आवहदि को वि विसए सउणो वादंसगेणेव ।।१३४०॥ 'इंदियकसायमइलो' इन्द्रियकषायपरिणाममलिनः । 'बाहिरकरणणिहुदेण वेसेण' बाह्याया गमनागमनादिकायाः क्रियाया निभृतेन वेषेण । 'कोई विसए आवहवि' कश्चिद्विषयानावहति आत्मनो भोगाय ।।१३४०॥ घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स ॥१३४१॥ 'घोडलिंडसमाणस्स' घोटकलिंडसमानस्य यथा बहिर्मसृणता न तद्वदन्तर्मसृणता । तद्वत्कस्यचिद्वाचं चरणं समीचीनं नाभ्यन्तराः परिणामाः शुद्धाः । स एवमुच्यते । 'बाहिरकरणं कि काहिदि' बाह्यक्रिया अनशनादिका किं करिष्यति । 'अब्भंतरम्मि कुथिदस्स' अन्तः कुथितस्स । इन्द्रियकषायसंज्ञाऽशुभपरिणामेन नष्टाभ्यन्तरतपोवृत्तेरिति यावत् । 'बगणिहुक्करणस्स' बकवन्निभृतक्रियस्य ॥१३४१॥ करता है । जैसे गधेपर लदा चन्दन दूसरोंका उपकार करता है ॥१३३८॥ __ आगे कहते हैं कि इन्द्रिय कषायरूप परिणामोंके दोषसे ज्ञान अपने प्रकाशकत्व धर्मको भी .छोड़ देता है गा-टी-इन्द्रिय और कषायोंका निग्रह करनेमें जो अपना उपयोग नहीं लगाता अर्थात जो इन्द्रिय और कषायोंसे प्रभावित है, उसका ज्ञान वस्तस्वरूपका प्रकाशक नहीं होता। जैसे, जिसने आँखे दी है उसके लिए तीव्रतासे जलता हुआ दीपक पदार्थोंका प्रकाश नहीं करता ॥१३३९॥ गा०—जिसका परिणाम इन्द्रिय और कषायसे मलिन होता है ऐसा कोई साधु बाह्य गमन आगमन आदि क्रियाओंके द्वारा अपने वेशको छिपाकर अपने भोगके लिये विषयोंको ग्रहण करता है जैसे निश्चल बैठा पक्षी अपनी चोंचसे अपने शिकारको ग्रहण करता है ॥१३४०।। गा०-टी०-जैसे घोड़ेकी लीद ऊपरसे चिकनी और भीतरसे खुरदरी होती है वैसे ही किसीका बाह्य आचरण तो समीचीन होता है किन्तु अभ्यन्तर परिणाम शुद्ध नहीं होते। उसे घोड़ेकी लीदके समान कहा है। जिसके अभ्यन्तर परिणाम शुद्ध नहीं हैं उसकी बाह्यक्रिया अनशन आदि क्या करेगी ? अर्थात् इन्द्रिय और कषायरूप अशुभ परिणामके द्वारा अभ्यन्तर तपोवृत्ति जिसकी नष्ट हो चुकी है वह बाह्य अनशन आदि तप करे भी तो क्या लाभ है। वह तो नदीके तटपर निश्चल बैठे हुए बगुलेकी तरह है ।।१३४१।। १. षायानि-आ० । २. वीदंसगे-ज०, मु०, मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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