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________________ विजयोदया टीका ६५७ बाह्य तपः करणीयतयोपदिष्टं तत्स्वफल सम्पादयत्येव किमुच्यते बाह्यक्रिया किं करोतीत्याशक्य सुरिराचष्टे बाहिरकरणविसुद्धी अब्भंतरकरणसोधणत्थाए । ___ण हु कुंडयस्स सोंघी सक्का सतुसस्स काईं जे ॥१३४२।। 'बाहिरकरणविसुद्धी' बाह्यक्रियाविशुद्धिः । 'अन्भंतरकरणशोधणत्थाए' अभ्यन्तरक्रियाणां विनयादीनां शुद्धये, अभ्यन्तरतपसां लघ्वेव बहुतरकर्मनिर्जराक्षमाणां परिवृद्धये श्रूयन्ते बाह्यान्यनशनादितपांसि । ततोऽन्वर्थतया बाह्यान्युपदिष्टानि । यद्धि यदर्थं तत्प्रधानं इति प्रधानताभ्यन्तरतपसः तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं । तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलं । उक्तं च-बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबहणार्थ । इति । ‘ण खु कुडयस्स सोधी सक्का कादं जे' नवान्तर्मलस्य शुद्धिः शक्या कर्तुं । कस्य ? 'सतुसस्स' सतुषस्य धान्यस्य ।।१३४२।। अभंतरसोधीए सुद्धं णियमेण बाहिरं करणं । अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरं दोसं ॥१३४३।। 'अन्भंतरसोधीए' अभ्यन्तरशुद्धया । 'सुद्धं णियमेण बाहिरं करणं' शुद्ध निश्चयेन बाह्य करणं । . 'अम्भंतरदोसेण खु' अन्तःपरिणामदोषेणैव इन्द्रियकषायपरिणामादिना । 'कुणदि णरो बाहिरं दोस' करोति नरो बाह्यान्दोषान्वाक्कायाश्रयान् ॥१३४३॥ लिंगं च होदि अब्भंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी । भिउडीकरणं लिंगं जह अंतोजादकोधस्स ॥१३४४॥ - लिंगं च होदि' चिह्न च भवति । 'अभंतरस्स परिणामसोधीए' अभ्यन्तरस्य परिणामस्य शुद्धः । 'बाहिरा सोधो' बाह्या शुद्धिरशनादितपोविषया । 'भिउडोकरणं लिंग' भृकुटीकरणं लिङ्गं । 'जह' यथा । यहाँ कोई शङ्का करता है कि ऊपर बाह्यतप करनेका उपदेश किया है वह अपना फल अवश्य देता है। तब आप कैसे कहते हैं कि वाह्यक्रिया क्या करेगी? इसका उत्तर आचार्य देते हैं गाo-टी०-अभ्यन्तर क्रिया विनय आदिकी शुद्धिके लिये बाह्यक्रियाकी विशुद्धि कही है । शीघ्र ही बहुतसे कर्मोंकी निर्जरामें समर्थ अभ्यन्तर तपोंकी वृद्धिके लिए बाह्य अनशन आदि तप सुने जाते हैं। इसीलिए उनका बाह्य नाम सार्थक है। जो जिसके लिये होता है वह प्रधान होता है। इसलिए अभ्यन्तर तपकी प्रधानता है। वह अभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामरूप होता है। उसके विना बाह्यतप निर्जरामें समर्थ नहीं होता। कहा भी है-'भगवन् ! आपने आध्यात्मिक तपकी वृद्धिके लिए अत्यन्त कठोर बाह्यतप किया।' ठीक ही है, क्योंकि छिलकेके रहते हुए धान्यकी अन्तः शुद्धि सम्भव नहीं है ।।१३४२।। ___ गा०-नियमसे अभ्यन्तर शुद्धिके होनेसे ही बाह्यशुद्धि होती है। इन्द्रियकषाय परिणाम आदि अन्तरंग परिणाम दोषसे ही मनुष्य वचन और कायसम्बन्धी बाह्य दोषोंको करता है ।।१३४३॥ गा०-टी०-अनशन आदि तपविषयक बाह्यशुद्धि अभ्यन्तर परिणामोंकी विशुद्धिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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