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________________ ६५४ भगवंती आराधनों त्युत्तरगाथार्थः इन्द्रियकषायाजये ज्ञानं दोषापहारित्वाख्यं अतिशयनं न लभते यथा सत्त्वहीनस्यावरणसन्नाहाख्यं प्रहरणं च खड्गचक्रादिकं शत्रुजयत्वमतिशयं नासादयति णाणं दोसे णासिदि णरस्स इदियकसायविजयेण । आउहरणं पहरणं जह णासेदि अरिं ससत्तस्स ॥१३३१॥ 'णाणं' ज्ञानं 'दोसे' दोषान् । 'णासिदि' नाशयति । 'णरस्स' नरस्य । 'इदियकसायविजयेन' । 'जह' यथा । 'आउहरणं पहरणं' आयुषो हरणं प्रहरणं शस्त्रं । सह सत्त्वेन वर्तते इति ससत्त्वस्तस्य । 'अरि रिपुं । 'गासेदि' नाशयति ।।१३३१॥ णाणंपि कुणदि दोसे णरस्स इंदियकसायदोसेण । आहारो वि हु पाणो णरस्स विससंजुदो हरदि ॥१३३२।। 'णाणपि कुणदि दोंसे णरस्स' ज्ञानं दोषानपि करोति नरस्य । 'इदियकसायदोसेण' इन्द्रियकषायपरिणामदोषेण । उपकार्यपि अनुपकारितामुदहति परसंसर्गेण । यथा प्राणधारणनिमित्तोऽप्याहारो विषमिश्रः प्राणाविनाशयति ।।१३३२॥ णाणं करेदि पुरिसस्स गुणे इंदियकसायविजयेण । बलरूववण्णमाऊ करेहि जुत्तो जधाहारो ।।१३३३।। 'णाणं करेदि' ज्ञानं करोति । 'पुरिसस्स गुणे' पुरुषस्य गुणान् । कथं ? 'इदियकसायविजएण' इन्द्रियकषायविजयेन । 'बलवण्णरूवमाऊ करेदि' बलं, रूपं, तेजः, आयुश्च करोति । 'जुत्तो जधाहारो' युक्तः शोभनो यथाहारः विषेणामिश्रितः ॥१३३३॥ णाणं पि गुणे णासेदि णरस्स इंदियकसायदोसेण । अप्पवधाए सत्थं होदि हु कापुरिसहत्थगयं ।।१३३४।। है। जैसे सत्त्वसम्पन्न मनुष्यका शस्त्र और कवच शत्रुका नाश करता है। तथा इन्द्रिय और कषायको न जीतनेपर ज्ञान दोषोंको दूर करनेरूप अतिशयको प्राप्त नहीं करता। जैसे सत्त्वहीन पुरुषका कवच और तलवार चक्र आदि शस्त्र शत्रुको जीतनेरूप अतिशयको नहीं प्राप्त करता ॥१३३०॥ गा०–इन्द्रिय और कषायको जीतनेसे ज्ञान मनुष्यके दोषोंको नष्ट करता है। जैसे सत्त्वशालीका आयुको हरनेवाला शस्त्र शत्रुको नष्ट करता है ।।१३३१।। गा० इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंके दोषसे ज्ञान भी मनुष्योंमें दोष उत्पन्न करता है । दूसरेके संसर्गसे उपकारी भी अनुपकारी हो जाता है। जैसे आहार प्राण धारणमें निमित्त है किन्तु विषसे मिला आहार प्राणोंका घातक होता है ।।१३३२।। गा०-और इन्द्रिय तथा कषायोंको जीतनेसे ज्ञान पुरुषमें गुण उत्पन्न करता है। जैसे विषसे रहित उत्तम आहार बल, रूप, तेज और आयुको बढ़ाता है ।।१३३३।। गा०-इन्द्रिय और कषायरूप परिणामोंके दोषसे ज्ञान भी पुरुषके गुणोंको नष्ट करता है । जैसे कायर पुरुषके हाथमें गया शस्त्र उसके ही बधमें निमित्त होता है ॥१३३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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