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________________ विजयोदया टीका 'कुलजस्स परिसस्स जसमिच्छंत्तगस्स' कुलप्रसूतस्य पंसः यशोऽभिलाषिणः । 'णिधणं वरं' मतिः शोभना । 'ण दु जीविजे' नव वरं जीवनं । दिक्खिदेण इंदियकसायवसिएण' दीक्षितस्येन्द्रियकषायवशवर्तिनः जीवनं न शोभनमित्यर्थः ॥१३२७॥ जध सण्णद्धो पग्गहिदचावकंडो रधी पलायंतो । णिदिज्जदि तध इंदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो ॥१३२८॥ 'यथा रधो पलायंतो णिदिज्जवि' यथा रथी पलायन्निन्द्यते । कीदृक् ? 'सण्णद्धो पग्गहिदचावकंडो' सन्नद्धः उपगृहीतचापकाण्डः । तथा 'इदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो' तथा इन्द्रियकषायवशवयपि प्रवजितो निन्द्यते ॥१३२८॥ जध भिक्खं हिंडंतो मउडादि अलंकिदो गहिदसत्थो । प्रिंदिज्जइ तघ इदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो ॥१३२९।। 'जध भिक्ख हिडतो' मुकुटादिभिरलंकृतो गृहीतशस्त्रो भिक्षां भ्रमन् निन्द्यते । तथा निन्द्यते इन्द्रियकषायवशवर्ती प्रव्रजितः ॥१३२९।। इदियकसायवसिगो मडो जग्गो य जो मलिणगत्तो । सो चित्तकम्मसमणोव्व समणरूवो असमणो हु ॥१३३०॥ 'इंदियकसायवसिगो' इन्द्रियकषायवशीकृतः, मुण्डो नग्नश्च यो मलिनगात्रः सन् । 'सो समणरूवो न समणो' स श्रमणरूपो न श्रमणः 'स चित्तकम्मसवणो व्व' स चित्रकर्मश्रमण इव । परमार्थश्रमणसदृशरूपोऽपि यथा चित्रश्रमणो न श्रमणस्तद्वदशुभपरिणामप्रवणः ॥१३३०॥ ज्ञानं नरस्य दोषानपहरति इन्द्रियकषायजयमुखेन यथा सत्त्ववतः प्रहरणमावरणं च शत्रु नाशयती गा०-कुलीन और यशके अभिलाषी पुरुषका मरना श्रेष्ठ है किन्तु दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषायके वशमें रहकर जीना श्रेष्ठ नहीं है ॥१३२७॥ गा-जैसे धनुष बाण लेकर युद्धके लिए तैयार रथारोही यदि युद्धसे भागता है तो निन्दाका पात्र होता है। उसी प्रकार दीक्षित साधु यदि इन्द्रिय और कषायके वशमें होता है तो निन्दाका पात्र होता है ॥१३२८।। गा०-जैसे मुकुट आदिसे सुशोभित और हाथमें शस्त्र लिये हुए कोई भिक्षाके लिए घूमता है तो निन्दाका पात्र होता है। वैसे ही दीक्षित होकर इन्द्रिय और कषायके वशमें होनेवाला भी निन्दाका पात्र होता है ॥१३२९॥ __गा०-टी०-जो मुण्डित नग्न और मलिन शरीरवाला होकर भी इन्द्रिय और कषायके वशमें होता है वह चित्रमें अंकित श्रमणके समान श्रमणरूपका धारी होनेपर भी श्रमण नहीं है । अर्थात् जैसे चित्रमें अंकित श्रमण वास्तविक श्रमणके समान रूपवाला होनेपर भी श्रमण नहीं है उसी प्रकार श्रमणका वेष धारण करके भी जिसके परिणाम अशुभ हैं वह श्रमण नहीं है ।।१३३०॥ __ आगे कहते हैं कि इन्द्रिय और कषायको जीतनेके द्वारा ज्ञान मनुष्यके दोषोंको दूर करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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