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________________ ६५२ भगवती आराधना इदियगहोवसिट्ठो उवसिट्ठो ण दु गहेण उवसिट्ठो । कुणदि गहो एयभवे दोसं इदरो भवसदेसु ।।१३२४॥ 'इदियगहोवसिट्ठो' इन्द्रियग्रहगृहीतः । 'उवसिट्ठो' गृहीतः । 'ण दु गहेण उवसिट्ठो' नैव ग्रहेणोपसृष्टः । कुतः ? यस्मात् । 'कुणदि गहो एयभवे दोस' एकस्मिन्नेव भवे ग्रहो बुद्धिव्यामोहलक्षणं दोषं करोति । 'इदरो भवसदेसु' इन्द्रियकषायग्रहो भवशतेषु दोषं करोति ।।१३२४॥ होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो तध ण पित्तउम्मत्तो । ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जधुम्मत्तो ॥१३२५।। 'होदि कसाउम्मत्तो' अत्रैवं पदघटना । 'उम्मत्तो होदि' उन्मत्तो भवति यथा। कः ? 'कसायउम्मत्तो' कषायोन्मत्तः । यथा 'उम्मत्तो ण होदित्ति' पदघटना तथा उन्मत्तो न भवति । कः ? 'पित्तउम्मत्तो पित्तोन्मत्तः । एतेन पित्तकृतादुन्मादात् कषायकृतस्योन्मादस्य जघन्यता ख्याता । कथं? 'न कुणवि पित्तम्मत्तों पापं न करोति पित्तोन्मत्तः । 'पापं इदरो जधुम्मत्तो' कषायोन्मत्तो यथा पापं करोति, तथाभूतं न करोति । यतः एकैकोऽपि क्रोधादिः हिंसादिषु प्रवर्तयनि । कर्मणां स्थितिबन्धं दीर्धीकरोति । विवेकज्ञानमेव तिरस्करोति पित्तोन्मादः । ततोऽनयोर्महदन्तरं इति भावः ॥१३२५॥ इदियकसायमइओ णरं पिसायं करंति हु पिसाया । पावकरणवलंबं पेच्छणयकरं सुयणमझे ॥१३२६॥ 'इदियकसायमइओ' इन्द्रियकषायमयः पिशाचः । 'गरं पिसायं करेवि' नरं पिशाचं करोति । कीदृग्भतं पिशाचं करोति ? 'सुजणमझे पेच्छणयकरं' सूजनमध्ये प्रेक्षणिककारणं । 'पावकरणवलंब' हिंसादिपापक्रियाविलम्बनां प्रेक्षणीयत्वेन संपादयन्तं पिशाचं करोतीति यावत ॥१३२६।। कुलजस्स जसमिच्छंत्तगस्स णिघणं वरं खु पुरिसस्स । ण य दिक्खिदेण इंदियकसायवसिएण जेदुजे ।।१३२७।। गा०-जो इन्द्रियरूपी ग्रहसे पकड़ा हुआ है वही ग्रह पीड़ित है। जो ग्रहसे पकड़ा हुआ है वह ग्रहपीड़ित नहीं है। क्योंकि ग्रह तो एक ही भवमें कष्ट देता है किन्तु इन्द्रियरूपी ग्रह सैकड़ों भवोंमें कष्ट देता है ।।१३२४॥ गा०-टी०-जो कषायसे उन्मत्त (पागल) है वही उन्मत्त है। जो पित्तसे उन्मत्त है वह उन्मत्त नहीं है। इससे पित्तके द्वारा हए उन्मादसे कषायके द्वारा हए उन्मादको निकृष्ट बतलाया है। क्योंकि कषायसे उन्मत्त पुरुष जैसा पाप करता है पित्तसे उन्मत्त वैसा पाप नहीं करता। एक-एक भी क्रोधादि कषाय हिंसा आदिमें प्रवृत्त करता है। कर्मोके स्थितिबन्धको बढ़ाता है। किन्तु पित्तसे हुआ उन्माद केवल विवेकमूलक ज्ञानका ही तिरस्कार करता है। इसलिए इन दोनोंमें बहुत अन्तर है ॥१३२५।। गा०-इन्द्रिय और कषायमय पिशाच मनुष्यको सुजनोंके मध्यमें देखने योग्य पापक्रियाकी विडम्बनाओंको करनेवाला पिशाच बना देता है ।।१३२६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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