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________________ विजयोदया टीका ३२५ wwwwwwwwwwwwwwan ~~~ ~ तथा चोक्तमाचारांगे 'सुदं मे आउस्सत्तो भगवदा एवमक्खादं । इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थीपु रिसा जदा भवंति। तं जहा-सव्वसमणागदे णोसमणागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमगदे थिरांगहत्थपाणिपादे सम्वदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ धारिउ एव परिहिउ एक अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति" । तथा चोक्तं कल्पे-'हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुति देहे जुग्गिदगे। धारेज्ज सिया वत्थं परिस्सहाणं चण विहासीति (वसहई)" द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं आचारे विद्यते--"अहं पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंतेहिं सुपडिवणे से अथापडिजुण्णमुवधि पदि छावेज्ज'' इति । हिमसमये शीतबाधासहः परिगृह्य चेलं तस्मिन्निष्क्रान्ते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणापेक्षं ग्रहणमाख्यातं । परिजीर्णविशेषोपादानाढ्ढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः । प्रक्षालनादिक संस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता न तु दृढ़स्य (स्या) त्यागकथनार्थ । पात्रप्रतिष्ठापना सूत्रेणोक्तेति संयमाथं पात्रग्रहणं सिध्यति इति मन्यसे नैव, अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्याग सिद्ध एवेति । तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणं । यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहण विधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम् । तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रषु बहपु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । यच्च भावनायामुक्तं-वरिसं चीवरधारी तेण परमेचलगो जिणोत्ति ।-तदुक्तं विप्रतिपत्ति बहुलत्वात् । कथं ? केचिद्वदन्ति 'तस्मिन्नेव दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति' । अन्ये 'षण्मासाच्छिन्नं तत्कण्टकशाखादिभिरिति' । 'साधिकेन आचारांगमें दूसरा सूत्र भी कारणकी अपेक्षा वस्त्र ग्रहणका साधक है-- 'यदि ऐसा जाने हेमन्त बीत गया, ग्रीष्म ऋतु आ गई और वस्त्र जीर्ण नहीं हुआ तो स्थापित कर दे ।' अर्थात् ठंडके समय शीतकी बाधा न सहने पर वस्त्र ग्रहण कर ले। उसके चले जाने पर और ग्रीष्मके आनेपर वस्त्रको कहीं रख दे। इस प्रकार कारणकी अपेक्षा वस्त्रका ग्रहण कहा है। शङ्का-जीर्ण विशेषण देनेसे दृढ़ वस्त्र हो तो न छोड़े ? समाधान-तब तो अचेलता कथनके साथ विरोध आता है। धोना आदि संस्कार न किये जानेसे वस्त्रको जीर्ण कहा है, मजबूत वस्त्रका त्याग न करनेके लिए नहीं कहा । शङ्का-सूत्रके द्वारा पात्रकी प्रतिष्ठापना कही है। अत: संयमके लिए पात्रका ग्रहण सिद्ध होता है ? समाधान-नहीं, अचेलताका अर्थ है परिग्रहका त्याग । और पात्र परिग्रह है अत: उसका भी त्याग सिद्ध ही है। अतः कारणकी अपेक्षा वस्त्र पात्रका ग्रहण कहा है। और जो उपकरण कारणकी अपेक्षा ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण ग्रहणकी विधि और गृहीत उपकरणका त्याग अवश्य कहना ही चाहिए । इसलिए बहुतसे (श्वेताम्बरीय) सूत्रोंमें जो अर्थाधिकारकी अपेक्षा वस्त्र पात्रका कथन किया है वह कारण विशेषकी अपेक्षा कहा है-ऐसा ग्रहण करना चाहिये । और जो भावनामें कहा है कि 'जिन एक वर्षतक वस्त्रधारी रहे उसके बाद अचेलक रहे।' उसमें बहुत विवाद हैं। कोई कहते हैं कि उसी दिन वह वस्त्र वीर भगवान्के किसी व्यक्तिने ले लिया था। दूसरोंका कहना है कि वह वस्त्र छह मासमें काँटे शाखा आदिसे छिन्न हो गया। १. जादा आ० मु० । २. 'अह पुणं एवं जाणिज्जा-उवाइक्कते हेमंते गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुन्नाई। वत्थाई परिविज्जा'-आचारा० ७।४।२०९ । Main Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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