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________________ ३७२ भगवतो आराधना कथं ? शरीरावलग्नजलकणप्रमार्जनं. हस्तेन पादेन वा शिलाफलकादिगतोदकापनयनं मृदुकाीयां भूमौ शयनं निम्ने जलप्रवाहगमनदेशे वा अवस्थानम, अवग्राहे वर्षापातः कदा स्यादिति चिन्ता, वर्षति देवे कदास्योपरमः स्यादिति वा, छत्रकटकादिधारणं वर्षानिवारणायेत्यादिकः । तथा अभ्रावकाशस्यातिचारः सचित्तायां भूमी त्रस सहितहरिनसमुत्थितायां विवरवत्यां शयनं । अकृतभूमिशरीरप्रमार्जनस्य हस्तपादसंकोचप्रसारणे, पाश्र्वान्तरसञ्चरणं, कण्डूयनं वा । हिमसमीरणाम्यां हतस्य कदैतदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरिनिपतितहिमापकर्षणं, अवश्यायघट्टना वा प्रचुरवातापातदेशोऽयमिति संक्लेशः, अग्निप्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकः । प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रालोचनातिचाराः 'आकपिय अणुमाणियमित्यादिकाः। स्व भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुगुप्सा । अज्ञानतः, प्रमादात्कर्मगुरुत्वादालस्याच्चेदं अशुभकर्मबन्धननिमित्तं अनुष्ठितं, दुष्टं कृतमिति एवमादिकप्रतिक्रमणातिचारः। उक्तोभयातिचारसमवायस्तदभयातिचारः । भा विवेकातिचारः। व्यत्सर्गातिचारः कृतः शरीरममतायां न निवत्तिः अशभध्यानपरिणतिः । कायोत्सर्गदोषाश्च तप' अतिचार उक्ताः । एवं छेदस्यातिचारः न्यूनो जातोऽहमिति संक्लेशः । भावतो रत्नत्रयानादानं मूलातिचारः। सर्वो द्विप्रकार इत्याचष्टे-'देशच्चाए विविध देशातिचारं नानाप्रकारं मनोवाक्कायभेदात्कृतकारितानुमत शरीरमें लगे जलके कणोंको हाथ वगैरहसे पोंछना, हाथ या पैरसे शिलातल आदिपर पड़े जलको दर करना. कोमल गीली भमिपर सोना, जलके बहनेके निचले प्रदेशमें ठहरना निश्चित स्थानपर रहते हुए 'कब वर्षा होगी' ऐसी चिन्ता करना अथवा वर्षा होनेपर 'कब रुकेगी' ऐसी चिन्ता करना, वर्षासे बचनेके लिए छाता आदि धारण करना ।। अभ्रावकाशके अतिचार-सचित्त भूमिपर जिसमें त्रससहित हरितकाय हो, तथा छिद्रवाली भूमिपर सोना, भूमि और शरीरको पीछीसे शुद्ध किये विना सोते हुए हाथ पैर संकोचना फैलाना, करवट लेना अथवा शरीर खुजाना | बर्फ और वायुसे पीड़ित होनेपर 'कब ये बन्द होंगे' ऐसी चिन्ता करना, बाँसके पत्ते वगैरहसे शरीरपर गिरे बर्फको हटाना, अथवा बर्फसे घट्टन करना, इस प्रदेशमें अधिक वायु चलती है ऐसा संक्लेश करना, अथवा शीत दूर करनेके साधन आग, ओढ़नेके वस्त्र आदिका स्मरण करना। प्रायश्चितके अतिचार-आलोचना प्रायश्चित्तके अतिचार 'आकम्पिय अणुमाणिय' इत्यादि आगे कहे गये हैं। अपने लगे अतिचारोंमें मनसे ग्लानिका न होना अतिचार है। अज्ञानसे. प्रमादसे, कर्मोंकी गुरुतासे, और आलस्यसे मैंने यह अशुभकर्मके बन्धमें निमित्त कार्य किया, यह बुरा किया, यह जुगुप्सा है। उसका न होना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्तका अतिचार है। उक्त आलोचना और प्रतिक्रमणके अतिचार तदुभय प्रायश्चित्तके अतिचार हैं। भावपूर्वक विवेकका न होना विवेक प्रायश्चित्तका अतिचार है। शरीरसे ममत्व न हटना, और अशुभध्यानरूप परिणति तथा कायोत्सर्गके दोष व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तके अतिचार हैं। तपके अतिचार पहले कहे हैं। मेरी दीक्षा छेदनेसे मैं छोटा हो गया, यह संक्लेश छेदप्रायश्चित्तका अतिचार है। भावपूर्वक रत्नत्रयको ग्रहण न करना मूलनामक प्रायश्चित्तका अतिचार है। अतिचारके दो प्रकार हैं-देशातिचार और सर्वातिचार । मनवचनकाय और कृत-कारित १. मृत्तिकाा-आ० मु०। २. अभ्राबर्कशस्य-अ० । ३. त्रसरहितकायचित्तायां विव-अ० । ४. रः कृतो भवतः-आ० । ५. तप अतिचारा उक्ताः-आ० । तप अतिचारे उक्तः मु० । रः कुतो भवति मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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