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________________ विजयोदया टीका २६१ विसुद्धि' परिणामविशुद्धि । 'खवगो खणमवि ण मुचेज्ज' क्षपकः क्षणमपि न त्यजेत् ॥२५८॥ अभ्यन्तरशुद्धयभावे दोषं कथयति अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा जे तवं विगट्ठपि । . कुव्वंति बहिल्लेस्सा ण होइ सा केवला सुद्धी ॥२५९।। 'अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा' अध्यवसान विशुद्ध्या वर्जिताः । 'जे' ये । 'तवं' तपः । “विगळंपि कुव्वंति' उत्कृष्टमपि कुर्वन्ति । 'बहिल्लेस्सा' बहिर्लेश्याः पूजासत्काराद्याहितचित्तवृत्तयः । 'ण होवि तेसि - केवला सुद्धी' दोषोन्मिश्रका भवतीति शुद्धिरिति यावत् ।।२५९॥ केवला शुद्धिः कस्य तर्हि भवतीत्याह अविगट्ठ पि तवं जो करेइ सुविसुद्धसुक्कलेस्साओ। अज्झवसाणविसुद्धो सो पावदि केवलं सुद्धिं ॥२६०॥ 'अविकळं वि' अनुत्कृष्टमपि तपो यः करोति । सुविशुद्धशुक्ललेश्यासमन्वितः विशुद्धपरिणामः स केवलां शुद्धि प्राप्नोति इति गाथार्थः ॥२६०।। प्रस्तुतां द्वितीयां कषायराल्लेखनामुक्तयाध्यवसायविशुद्धया योजयति अज्झवसाणविसुद्धी कसायकलुसीकदस्स णस्थित्ति । अज्झवसाणविसुद्धी कसायसल्लेहणा भणिदा ॥२६१॥ .. 'अज्झवसाणविसुद्धी' परिणामविशुद्धिः । 'कसायकलुसोकदस्स' कषायः कलुषीकृतस्य । ‘णत्थि' नास्ति यस्मात् इति तस्मात् । 'अज्झावसाणविसद्धी' परिणामविसद्धिः । 'कसायसल्लेहणा भणिया' कषायसल्लेखनेति गदिता ॥२६१॥ की विशुद्धिको क्षपक एक क्षणके लिये भी न छोड़े ॥२५८।। अभ्यन्तर शुद्धिके अभावमें दोष कहते हैं गा०-परिणामोंकी विशुद्धिको छोड़कर जो उत्कृष्ट भी तप करते हैं उनकी चित्तवृत्ति पूजा सत्कार आदिमें ही लगी होती है। उनके अशुभ कर्मके आस्रवसे रहित शुद्धि नहीं होती। अर्थात् दोषोंसे मिली हुई शुद्धि होती है ।।२५९। तब केवल शुद्धि किसके होती है, यह कहते हैं गा०-जो अतिविशुद्ध शुक्ललेश्यासे युक्त और विशुद्ध परिणामवाला अनुत्कृष्ट भी तप करता है वह केवल शुद्धिको पाता है । यह गाथाका अर्थ है ॥२६०॥ प्रस्तुत दूसरी कषाय सल्लेखनाको उक्त अध्यवसान विशुद्धिसे जोड़ते हैं गा०—जिसका चित्त कषायसे दूषित है उसके परिणाम विशुद्धि नहीं होती। इसलिये परिणाम विशुद्धिको कषाय सल्लेखना कहो है ।।२६१।। - विशेषार्थ-जिस मुनिका चित्त क्रोधाग्निके द्वारा कलुषित है उस मुनिके परिणाम विशुद्ध नहीं हैं। अतः उसके कषाय सल्लेखना नहीं है। कषायके कृश करनेको कषाय सल्लेखना कहते हैं । और कषायके कृश हुए बिना परिणाम विशुद्ध नहीं होते । अतः परिणाम विशुद्धिके साथ कषाय सल्लेखना का साध्य साधन भाव सम्बन्ध है ॥२६१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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