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________________ २६० भगवती आराधना आयंबिलणिन्वियडीहिं दोणि आयविलेण एक्कं च । अद्ध णादिविगठेहिं अदो अद्धं विगठेहिं ।।२५६।। 'आयंबिलपिस्वियडीहिं' आचाम्लेन निर्विकृत्या च । 'दोण्णि' वर्षद्वयं क्षपयति । 'आयंबिलेण' आचाम्लेनैव । 'एकं च' एक वर्ष । 'अद्ध" अवशिष्टस्य वर्षस्य षण्मासान । 'नादिविगहि' अत्यनत्कष्टस्तपोभिः क्रशयति । 'अदो अद्ध विकठेहि' अतः परं षण्मासान उत्कृष्टस्तपोभिः ॥२५६।। व्यावणितेनैव क्रमेण आचरितव्यमिति नियोगो न विद्यते इत्याचष्टे भत्तं खेत्तं कालं धातुंच पडुच्च तह तवं कुज्जा । वादो पित्तो सिंभो व जहा खोभं ण उवयंति ॥२५७।। 'भत्तं' आहारं शाकबहुलं, रसबहुलं, कुल्मापप्रायं, निष्पावचणकादिमिश्र, शाकव्यञ्जनादिरहितं वा । 'खेत्तं' अनूपजाङ्गलसाधारणविकल्पं । 'कालं' धर्मशीतसाधारणभेदं । धातुमात्मनः शरीरप्रकृतिं च । 'पडुच्च' आश्रित्य । 'तह' तथा । 'तवं कुज्जा' तपः कुर्या'ज्जहा खोभं ण उदयंति'। यथा क्षोभं नोपयान्ति । 'वादो पित्तो सिभो वा' वातपित्तश्लेष्मत्रिकं ॥२५७।। • शरीरसल्लेखनाक्रममभिधायाभ्यन्तरसल्लेखनाक्र ममभिधातुं अभ्यन्तरसल्लेखनया सह सम्बन्धं कथयन्ति एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुविहा व फासेंतो। अज्झवसाणविसुद्धिं खणमवि खवओ ण मुंचेज्ज ।।२५८।। 'एव'मुक्तेन क्रमेण । 'शरीरसल्लेहणाविहि' नानाप्रकारं । 'फासेतो वि' स्पृशन्नपि । 'अज्झवसाण गा०-आचाम्ल और निविकृतिके द्वारा दो वर्ष बिताता है। आचाम्लके द्वारा एक वर्ष विताता है। मध्यम तपके द्वारा शेष वर्षके छह माह और उत्कृष्ट तपके द्वारा शेष छह मास बिताता है ।।२५६॥ विशेषार्थ-शेष चार वर्षों में से दो वर्ष कांजी और रस व्यंजन आदिसे रहित भात वगैरह खाकर बिताता है। एक वर्ष केवल कांजी आहार लेता है। अन्तिम बारहवें वर्षके प्रथम छह महीनोंमें मध्यम तप करता है । अन्तिम छह महीनोंमें उत्कृष्ट तप करता है ॥२५॥ आगे कहते हैं कि ऊपर कहे क्रमके अनुसार ही आचरण करनेका नियम नहीं है गा०-आहार, क्षेत्र, काल अपनी शारीरिक प्रकृतिको विचार कर इस प्रकार तप करना चाहिये जिस प्रकार वात पित्त और कफ क्षोभको प्राप्त न हों ।।२५७|| ___टी०-आहारके अनेक प्रकार हैं-शाक बहुल-जिसमें शाक ज्यादा है, रस बहुल-जिसमें घी दूध आदि रस अधिक हैं । कुल्माषप्राय-जिसमें कुलथी अधिक है। कच्चे चने आदि से मिला आहार और शाक व्यंजन आदिसे रहित आहार । क्षेत्र भी अनेक प्रकारके हैं जिसमें पानीकी प्रचुरता है, वर्षा अधिक होती है, कहीं वर्षा कम होती है। काल गर्मी सर्दी और साधारण होता है। इन सबका तथा अपनी प्रकृतिका विचार करके तप करना चाहिये जिससे स्वास्थ्य खराब न हो ॥२५७॥ शरीरकी सल्लेखनाका क्रम कहकर अभ्यन्तर सल्लेखनाका क्रम कहनेके लिये अभ्यन्तर सल्लेखनाके साथ सम्बन्ध कहते हैं गा०–उक्त क्रमसे नाना प्रकारकी शरीर सल्लेखनाकी विधिको करते हुए भी परिणामों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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