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________________ २५९ विजयोदया टीका शरीरसल्लेखनोपायोत्कृष्टमाचाम्लाशनमित्युक्तं तत्कीदृगिति चोदिते आह छट्टमदसमदुबालसेहिं भत्तेहिं विदियअट्ठोहिं । . मिदलहुगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो ॥२५३।। 'छट्टमदसमदुबालसेहि भत्तेहिं विदियअठेहि' द्वित्रिचतुःपञ्चदिनोपवासैः उत्कृष्टः । 'भिदलहगं आहारं करेदि' परिमितं लध्वाहारं करोति । 'आयंबिलं' आचाम्लं । 'बहुसो' बहुशः ॥२५३॥ भक्तप्रत्याख्यानस्यास्य वर्ण्यमानस्य कियत्काल इत्यत्रोत्तरं उक्कस्सएण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो। कालम्मि संपहुत्ते बारसवरिसाणि पुष्णाणि ॥२५४।। 'उक्कस्सएण' उत्कर्षेण । 'भत्तपइण्णाकालो' भक्तप्रत्याख्यानकालः । 'जिणेहि णिहिटो' जिननिर्दिष्टः । 'कालम्मि' काले । 'संपत्ते' महति सति । 'बारसवरिसाणि' सम्पूर्णद्वादशवर्षमात्रान् ॥२५४॥ उक्तेषु द्वादशवर्षेषु एवं कर्तव्यमिति क्रमं सल्लेखनाय दर्शयति जोगेहिं विचित्तेहिं दुखवेइ संवच्छराणि चत्तारि । वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि 'सोसेदि ।।२५५।। 'जोहि' कायक्लेशः । 'विचित्तेहि दु' विचित्ररनियतः । 'खवेदि' क्षपयति । 'संवच्छराणि चत्तारि' वर्षचतुष्टयं । यत्किचिद्भुक्त्वा । 'विगडी णिज्जूहित्ता' रसादीन्क्षीरादोन्परित्यज्य । 'चत्तारि' वपंचतुष्टयं । 'पुणो वि' पुनरपि । "सोसेदि' तनूकरोति तनुम् ॥२५५॥ शरीरको सल्लेखनाके उपायोंमें आचाम्लको उत्कृष्ट कहा, वह कैसा होता है, यह कहते हैं गा०-उत्कृष्ट दो दिन, तीन दिन, चार दिन और पाँच दिनके उपवासके बाद अधिकतर परिमित और लघु आहार आचाम्लको करते हैं ॥२५३।। विशेषार्थ-'अदिविकट्रेहि' के स्थानमें 'वियदि अद्वेहि' पाठ भी मिलता है । उसका अर्थ 'विशेष अतिकष्ट' ऐसा होता है। इस गाथाका तात्पर्य यह है षष्ठ आदि उपवासोंसे संक्लेशको न प्राप्त होता यति मित और लघु कांजी का आहार प्रायः करता है। उसे संलेखनाके हेतुओंमें उत्कृष्ट कहते हैं ॥२५३॥ जिस भक्त प्रत्याख्यानका वर्णन चल रहा है उसका काल कितना है ? इसका उत्तर देते हैं गा०-यदि आयुका काल अधिक शेष हो तो जिन भगवान्ने उत्कृष्टसे भक्त प्रत्याख्यानका काल पूर्ण बारह वर्ष कहा है ।।२५४॥ उक्त बारह वर्षमें ऐसा करना चाहिये, इस प्रकार सल्लेखनाका क्रम बतलाते हैं गा-नाना प्रकारके कायक्लेशोंके द्वारा चार वर्ष बिताता हैं। दूध आदि रसोंको त्यागकर फिर भी चार वर्ष तक शरीरको सुखाता है ॥२५५।। . . १. मोमेइ अ० । २. मोसेदि अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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