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________________ २६२ भगवती आराधना शुभपरिणामप्रवाहवृत्तेन चतुष्कषायसल्लेखना कृता भवति इत्यभिधाय सामान्येन चतुर्णामपि कषायाणा तनूकरणे उपायं प्रतिपक्षपरिणामचतुष्कं कथयति कोधं खमाए माणं च मद्दवेणाज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं जिणदु खु चत्तारि वि कसाए ।।२६२॥ कोधं खमायेत्यादिना कषायविनाशने उपायस्तदुत्पत्तित्यागः ॥२६२।। उत्पद्यमानो हि कषायो वृद्धिमुपैतीति कथयति कोहस्स य माणस्स य मायालोभाण सो ण एदि वसं । जो ताण कसायाणं उप्पत्तिं चेव वज्जेइ ।।२६३॥ 'कोहस्स य' अत्रैवं पदघटना । 'जो तेसि कसायाणमुप्पत्ति चेव वज्जेदि' यस्तेषां कषायाणामुत्पत्ति एव परिहरति । 'क्रोधस्स य माणस्स य मायालोभाण सो ण एदि वसं' क्रोधमानमायालोभानां स नोपैति वशं । यस्तेषामत्पत्तिमपेक्षते स तदशगः कथं कषायसल्लेखनां कुर्यादिति भावः ॥२६३॥ कषायोत्पत्ति परिहतुमिच्छता किं कर्तव्यमित्यत आह तं वत्थं मोत्तव्वं जं पडि उप्पज्जदे कसायग्गि । तं वत्थमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं ॥२६४॥ 'तं वत्थु मोत्तव्वं तद्वस्तु मोक्तव्यं । 'जं पडि उप्पज्जदे' यन्निमित्तं उत्पद्यते 'कसायग्गों' कषायाग्निः । 'तं वत्थुमल्लिएज्जो' तद्वस्तूपाश्रयणं कुर्यात् । 'जत्थ' यत्रोपाश्रयणे । 'उवसमो कसायाणं' कषायाणामुपशमो भवति ॥२६४॥ जइ कहवि कसायग्गी समुट्ठिदो होज्ज विज्झवेदव्वो । रागदोसुप्पत्ती विज्झादि हु परिहरंतस्स ।।२६५।। 'जइ कहवि कसायग्गी' यदि कथंचित्कषायाग्निः । 'समुट्ठिदो होज्ज' समुत्थितो भवेन् । 'विज्झवे जो शुभ परिणामोंके प्रवाहमें बहता है वही चार कषायोंकी सल्लेखना करता है यह कहकर, सामान्य से चारों कषायों को कृश करनेका उपाय उनके प्रतिपक्षी चार प्रकारके परिणाम हैं, यह कहते हैं टो०-क्रोधको क्षमासे, मानको मादवसे माया को आर्जवसे और लोभको सन्तोषसे, इस प्रकार चारों ही कषायोंको जीतो ॥२६२॥ आगे कहते हैं कि उत्पन्न हुई कषाय बढती है टो०-जो उन कषायोंकी उत्पत्तिको ही रोक देता है वह मुनि क्रोध, मान, माया, लोभके वशमें नहीं होता ।।२६३|| जो कषायकी उत्पत्तिसे बचना चाहता है उसे क्या करना चाहिए यह कहते हैं मा०-उस वस्तुको छोड़ देना चाहिए जिसको लेकर कषायरूपी आग उत्पन्न होती है। और उस वस्तुको अपनाना चाहिए जिसके अपनानेसे कषायोंका उपशम हो ॥२६४|| _ गा०-यदि थोड़ी भी कसायरूप आग उठती हो तो उसे बुझा दे। जो कषायको दूर करता है उसके राग-द्वेषकी उत्पत्ति शान्त हो जाती है ॥२६५॥ टी०-नीच जनकी संगतिकी तरह कषाय हृदयको जलाती है। अशुभ अंगोंपांग नामकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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