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________________ विजयोदया टीका २६३ बम्वो' विध्यापयितव्यः । 'रागद्दोसुप्पत्ती' रागद्वेषयोरुत्पत्ति । "विज्झादि हु' शाम्यत्येव । 'परिहरंतस्स परिहरतः। कषायाग्निः प्रशान्ति नीयते। तदोषापेक्षणेन नीचजनसाङ्गत्यमिव हृदयं दहति, अशुभाङ्गोपाङ्गनामकर्मवद्विरूपाननं करोति । रज इव चक्षुषो रागमानयति । महासमीरण इव तनुं कम्पयति । सुरापानमिव यत्किचिन्निगदयति । समीचीनज्ञानलोचनं मलिनयति । दर्शनवनमुत्पाटयति । चारित्रसरः शोषयति । तपःपल्लवं भस्मयति । अशुभप्रकृतिलतां स्थिरयति । शुभकर्मफलं विरसयति । प्रत्यग्रमनोमलं ढोकयति । हृदयं कठिनयति । प्राणभृतो घातयति । भारतीमसत्यां प्रवर्तयति । गुरूनपि गुणान्लङ्घयति । यशोधनं नाशयति । परानपवादयति । महतोऽपि गुणान्स्थगयति । मैत्रीमुन्मूलयति । कृतमप्युपकारं विस्मारयति । अपकारमध्यापयति । महति नरकगर्ने पातयति । दुःखावतें निमज्जयतीत्यनेकानवहत्वभावनया ॥२६५।। रागद्वेषप्रशान्त्युपायकथनाय गाथा जावंति केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं । ते वज्जंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो ।।२६६।। 'जावंति केइ संगा' यावन्तः केचन परिग्रहाः । 'उवीरगा होंति रागदोसाणं' उत्पादका भवन्ति रागद्वेषयोः । 'ते वज्जंतो' तान्परिग्रहान्निराकुर्वन् । 'जिणवि खु जयत्येव । 'राग दोसं च' रागद्वेषौ । 'निस्संगो' निःपरिग्रहः ॥२६६॥ के उदयसे जो मुख विरूप होता है वैसे ही कषायके उदयमें मनुष्यका मुख क्रोधसे विरूप हो जाता है। जैसे धूल पड़नेसे आँख लाल हो जाती है उसी तरह क्रोधसे आँख लाल हो जाती है । जैसे महावायुसे शरीर कांपने लगता है वैसे ही क्रोधसे मनुष्य काँपने लगता है। जैसे शरावी शराब पीकर जो चाहे बकता है वैसे ही क्रोधमें मनुष्य जो चाहे बोल देता है। जैसे जिसपर भूतका प्रकोप होता है वह कुछ भी करता है वैसे ही क्रोधी मनुष्य जो चाहे करता है। कषाय समीचीन ज्ञानरूपी दृष्टिको मलिन कर देती है । सम्यग्दर्शनरूपी वनको उजाड़ देती है। चारित्ररूपी सरोवरको सुखा देती है। तपरूपी पत्रोंको जला देती है। अशुभकर्मरूपी बेलकी जड़ जमा देती है । शुभकर्मके फलको रसहीन कर देती है। अच्छे मनको मलिन करती है। हृदयको कठोर बनाती है । प्राणियोंका घात करती है। वाणीको असत्यकी ओर ले जाती है । महान् गुणोंका भी निरादर करती है । यशरूपी धनको नष्ट करती है। दूसरोंको दोष लगाती है। महापुरुषोंके भी गुणोंको ढांकती है, मित्रताकी जड़ खोदती है। किये हुए भी उपकारको भुलाती है। महान् नरकके गढ़ेमें गिराती है। दुःखोंके भँवरमें फँसाती है । इस प्रकार कषाय अनेक अनर्थ करती है । ऐसी भावनासे कषायको शान्त करना चाहिए ॥२६५॥ आगे गाथाके द्वारा रागद्वेषकी शान्तिके उपाय कहते हैं गा०—जितने भी परिग्रह रागद्वषको उत्पन्न करते हैं, उन परिग्रहोंको छोड़नेवाला अपरिग्रही साधु राग और द्वषको निश्चयसे जीतता है ।।२६६॥ १. विज्झादिषु अ० । विज्भादिसु आ० । २. यति । आविष्टग्रह इव यत्किचन कारयति समी-मु० । ३. गाथार्थः, अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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