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________________ ४५२ भगवती आराधना देसं भोच्चा हा हा तीरं पत्तस्सिमेहि किं मेत्ति । वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ।।६९२।। सव्वं भोच्चा घिद्धी तीरं पत्तस्सिमेहिं कि मेत्ति । वरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होइ ।।६९३।। मनोज्ञविषयसेवा हि पौनःपुन्येन प्रवर्तमाना अभिलाषं जनयति जन्तोः । स चानुरागः कर्मपुद्गलादाने हेतुः, ततो भीम' भवाम्भोधिप्रवेशनं भवभृतामिति स्पष्टार्थ गांथात्रयं । उत्तर प्रकाशना समाप्ता पयासणा ॥६९३॥ हाणी इति सूत्रपदं व्याचष्टे कोई तमादइत्ता मणुण्णरसवेदणाए संविद्धो । तं चेवणुबंधेज्ज हु सव्वं देसं च गिद्धीए ॥६९४।। 'कोई' कश्चिद्यतिः । 'तं' दर्शितमाहारं । 'आदयित्ता' भुक्त्वा । 'मणुण्णरसवेदणाए' मनोज्ञरसानुभवनेन । 'संविद्धो' मूच्छितः । 'तं चेवणुबंधेज्ज हु' तमेवास्वादितं मनोज्ञाहारमनुबध्नीयात् । दर्शितेष्वेकं वा, 'गिद्धोए' गृद्धया ॥६९४|| तत्थ अवाओवायं दंसेदि विसेसदो उवदिसंतो। उद्धरिदु मणोसल्लं सुहुमं सण्णिव्ववेमाणो ॥६९५।। गा०-कोई क्षपक भोजनका स्वाद मात्र लेकर 'मरणको प्राप्त' मुझे इस मनोज्ञ भोजनसे क्या, ऐसा विचार विरक्त हो, संसारके भयको त्यागने में तत्पर होता है ॥६९१॥ गा०-कोई क्षपक थोड़ा सा खाकर 'मरणको प्राप्त मुझे इस मनोज्ञ आहारसे क्या' ऐसा विचार विरक्त हो संसारके भयको त्यागनेमें तत्पर होता है ।।६९२।। गा०-टो०-कोई सब आहारको भोगकर 'मुझे बार-बार धिक्कार है । मरणको प्राप्त मुझे इस मनोज्ञ आहारसे क्या प्रयोजन' इस प्रकार विरक्त हो संसारके भयसे मुक्त होने में तत्पर होता है। बार-बार मनोज्ञ विषयोंका सेवन यदि चलता रहे तो उससे जीवमें उसकी अभिलाषा बनी रहती है। और वह अनुराग कर्म पुद्गलोंके ग्रहणमें कारण होता है और उससे प्राणिगण संसार समुद्रमें पड़े रहते हैं। यह स्पष्ट करनेके लिए ये तीन गाथा कही है ॥६९३॥ । __ आहारका प्रकाशन समाप्त हुआ। हानिका कथन करते हैं गा०-कोई क्षपक उस दिखाये आहारको खाकर मनोज्ञ रसके स्वादसे मूच्छित होकर तृष्णावश उस खाये आहारमें से सबको अथवा किसी एक वस्तुको ही खानेकी इच्छा करता है ॥६९४॥ १. त्तो भोग-भ-आ० मु० । २. त्रयोत्तरं अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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