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________________ विजयोदया टोका ६०५ आदानं निक्षेपो वेति द्वितीयो भङ्गः । आलोक्य दुःप्रमृष्टं इति तृतीयः । आलोकितं प्रमृष्टं च न पुनरालोकितं शुद्धं न शुद्धं वेति चतुर्थो भङ्गः । एतद्दोषचतुष्टयं परिहरतो भवति आदाननिक्षेपणसमितिः ॥११९२॥ एदेण चेव पदिट्ठावणसमिदीवि वणिया होदि । वोसरणिज्जं दव्वं थंडिल्ले वोसरितस्स ||११९३।। 'एदेण चेव' आदाननिक्ष पविषययत्नकथनेन । 'पदिट्ठावणसमिदीवि वण्णिदा होदि' प्रतिष्ठापनसमितिवणिता भवति । 'वोसरणिज्ज' परित्यक्तव्यं मूत्रपुरीषादिकं मलं । 'थंडिल्ले वोसरितस्स' स्थंडिले निर्जन्तुके, निश्च्छिद्रे, समे व्युत्सृजतः ॥११९३॥ एदाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं जगम्मि विहरमाणो हु ।' हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकायाउले साहू ॥११९४॥ ‘एदाहिं समिदीहि' एताभिः । 'सदा जुत्तो' सदा युक्तः । 'जगम्मि विहरमाणो दु' जगति विचरन्नपि । कीदृशौ ? 'जीवणिकायाउले' षड्जीवनिकायाकीर्णे । “हिंसादोहिं' हिंसादिभिः । 'ण लिप्पदि' न लिप्यते साधुः । आदिग्रहणेन परितापनं, संघट्टनं, अङ्गन्यूनताकरणादिपरिग्रहः । समितिषु प्रवर्तमानः प्रमादरहितः । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसेत्युच्यते'। हिंसादिसहितानि कर्माणि हिंसादिशब्देनोच्यन्ते । कार्य कारणशब्दप्रवृत्तिः 'प्रतीततरत्वात् ॥११९४।। यद्यपि विवर्जननिमित्तगुणान्वितं तत्र प्रवर्तमानमपि तेन न लिप्यते यथा स्नेहगुणान्वितं तामरसपत्रं सहसा नामक प्रथम दोष है। विना देखे प्रमार्जन करके पुस्तक आदिको ग्रहण करना या रखना अनाभोगित नामक दूसरा दोष है। देखकर भी सभ्य प्रतिलेखना न करके पुस्तक आदिको ग्रहण करना या रखना दुष्प्रमृष्ट नामक तीसरा दोष है। देखा भी और प्रमार्जन भी किया किन्तु यह शुद्ध है या अशुद्ध, यह नहीं देखा यह चतुर्थ अप्रत्यवेक्षण नामक दोष है। इन चारों दोषोंको जो दूर करता है उसके आदान निक्षेपण समिति होती है ।।११९२।। प्रतिष्ठापन समिति कहते हैं गा०-आदान और निक्षेप विषयक सावधानताका कथन करनेसे प्रतिष्ठापन समितिका कथन हो जाता है । त्यागने योग्य मूत्र विष्टा आदिको जन्तुरहित और छिद्ररहित समभूमिमें त्यागना प्रतिष्ठापन समिति है ॥११९३।। गा०-टी०-इन पाँच समितियोंका सदा पालन करनेवाला मुनि छ प्रकारके जीवनिकायोंसे भरे हुए लोकमें गमनागमन आदि करता हुआ भी हिंसा आदिसे लिप्त नहीं होता। 'आदि' शब्दसे छहकायके जीवोंको कष्ट देना, उनका परस्परमें संघटन करना, उनके अंग उपांगोंको छिन्नभिन्न करना आदि पापोंसे लिप्त नहीं होता। समितियोंमें प्रवृत्ति करते हुए मुनि प्रमादसे रहित होता है । और प्रमत्तयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है। हिंसा आदिसे सहित कर्म हिंसा आदि शब्दसे कहे जाते हैं। क्योंकि कार्यमें कारणशब्दकी प्रवत्ति अति प्रसिद्ध है। आदान निक्षेपमें निमित्त गुणोंसे युक्त मुनि प्रवृत्ति करते हुए भी हिंसा आदि पापसे लिप्त नहीं होता ॥११९४।। जैसे चिक्कणगुणसे युक्त कमल नीलमणिके समान निर्मल जलमें सदा रहते हुए भी १. प्रतीतिमागच्छत् । यदपि-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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