________________
विजयोदया टीका
६०१ तीति गज इत्येवमादिका अवयवार्थानुगमाभावेऽपि विवक्षितार्थप्रवृत्तिनिमित्तभूता । सम्मदिशब्देन संस्थानाम्युपगम उच्यते । गजेन्द्री नरेन्द्र इत्यादिकाः शब्दाः शुभलक्षणयोगात् केषाश्चित् स्वतो लक्षणत्वा'नामीश्वरत्वेनाम्युपगममाश्रित्य क्वचिद्गजे मानवे वा प्रयुज्यमानाः सम्मतिसत्यशब्देनोच्यन्ते । अहंन्निन्द्रः स्कन्दः इत्येवमादयः सद्भावासद्भावस्थापनाविषया स्थापनासत्य । अरिहननं, रजोहननं, इन्दनं इत्येवमादीनां क्रियाणां तत्राभावाव्यलीकता नाशङ्कनीया आकारमात्र परमार्थत्वात्सर्वभावानां । तस्य च स्थापनायां वस्त्वास्तित्वाद् बुद्धिपरिग्रहेण वा सद्भावात् । इन्द्रादिसंज्ञा स्वप्रवृत्तिनिमित्तजातिगुणक्रियाद्रव्यनिरपेक्षा तच्छब्दाभिधेयसम्बन्धपरिणतिमात्रेण वस्तुनः प्रवृत्ता नामसत्यं । रूपग्रहणं उपलक्षणं प्रवृत्तिनिमित्तानां नीलमुत्पलं, धवलो हि मृगलाञ्छन इत्येवमादिकं रूपसत्यं । सम्बन्ध्यन्तरापेक्षाभिव्यंग्यं च वस्तुस्वरूपालम्बनं दी? ह्रस्व इत्येवमादिकं प्रतीत्यसत्यं । वस्तुनि तथाऽप्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्ययोग्यतादर्शनात् सम्भावनया वृत्तं सम्भावनासत्यं । अपि दो| समुद्रं तरेत्, शिरसा पर्वतं भिन्द्यात् इत्यादि । वर्तमानकाले स परिणामो यद्यपि नास्ति तथाप्यतीतानागत
जनपद सत्य है । जैसे गमन करे वह गाय है गर्जन करे वह गज-हाथी है । यद्यपि गमनरूप और गर्जनरूप अर्थ नहीं होनेपर भी इन अर्थोंकी प्रवृत्तिमें निमित्तभूत वाणी जनपद सत्य है। अर्थात् जैसे गाय और गजशब्द गमन और गर्जन अर्थको लेकर निष्पन्न हुए हैं और उनका संकेत गाय और गजमें किया गया है । गाय बैठी हो तब भी उसे गाय कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक देशकी भाषामें शब्द जनपद सत्य हैं।
सम्मति शब्दसे आकार विशेषकी स्वीकृति कहो जाती है। जैसे गजेन्द्र नरेन्द्र इत्यादि शब्द शुभलक्षणके योगसे व्यवहृत होते हैं। किन्हीं में स्वयं शुभलक्षण पाये जानेसे उन्हें इन्द्र या ईश्वरके रूपमें स्वीकार करके किसी गजको गजेन्द्र या मनुष्यको सुरेन्द्र कहना सम्मति सत्य है । किसी तदाकार या अतदाकार वस्तुमें अर्हन्त, इन्द्र या स्कन्दकी स्थापना करके उसे अर्हन्त आदि कहना स्थापना सत्य है। मूर्तिमें स्थापित अर्हन्त या इन्द्रमें अर्हन्तशब्दका अर्थ अरि-कर्मशत्रुका हनन करना या कर्मरजका हनन करना और इन्द्र शब्दका अर्थ इन्दन क्रिया नहीं पाई जाती, इसलिए उसमें असत्यपनेकी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सभी पदार्थ आकारमात्रमें परमार्थ माने जाते हैं। और वह आकार तदाकार स्थापनामें वस्तुरूपसे रहता है अथवा अतदाकार स्थापनामें उसमें उस प्रकारकी बुद्धि कर ली जाती है।
___ इन्द्रादि नामोंकी प्रवृत्तिमें निमित्त जाति, गुण, क्रिया और द्रव्यकी अपेक्षा न करके जो उस शब्दका अपने वाच्यार्थके साथ सम्बन्ध है केवल उसी दृष्टिसे रखा वस्तुका इन्द्रादि नाम नामसत्य है। रूपका ग्रहण शब्दको प्रवृत्तिके निमित्तोंका उपलक्षण है। जैसे कमलका नीला रूप देखकर नीलकमल कहना या चन्द्रमा सफेद कहना रूप सत्य है। अन्य वस्तुके सम्बन्धसे ब्यक्त होनेवाला वस्तुका स्वरूप प्रतीत्य सत्य है जैसे किसीको लम्बा या ठिगना कहना।
वस्तुमें वैसा नहीं होने पर भी उस प्रकारके कार्यकी योग्यता देखकर जो संभावना मूलक वचन है वह संभावना सत्य है। जैसे कहना अमुक व्यक्ति हाथोंसे समुद्र पार कर सकता है या सिरसे पर्वत तोड़ सकता है । इत्यादि । यद्यपि वर्तमान कालमें वस्तुमें वह परिणाम नहीं है तथापि
१. णत्वमो-आ० । णत्वादी-मु० । णावामी-मूलारा० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org