SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ भगवती आराधना 'वायाए जं कहणं' वाचा गुणानां यत्कथनं । 'तं पासणं हवे तेसि' तन्नाशनं भवेत्तेषा गुण.ना । 'चरिदेहि गुणाण कहणं' चरितैरेव गुणानां कथनं 'तेसिमुन्भासणं होइ' गुणानां प्रकटनं भवति । एतदुक्त भवति-गुणान्प्रकटयितुकामस्य यद्वाचा कथनं गुणेष्वात्मनः प्रवृत्तिरेव गुणप्रकाशनं इति ॥३६७।। 'चरितेन गुणप्रकाशनस्य माहात्म्यं कथयति ___ वायाए अकहेंता सुजणे विकतहेंया य चरिदेहिं । सगुणे पुरिसाण पुरिसा होंति उवरीव लोगम्मि ।।३६८।। 'वायाए अहिता' वाचया अकथयन्तः । 'सुजणे' साधुजनमध्ये । 'चरिदेहि विहितगा य' चरितः प्रतिपादयन्तः । 'सगुणे' आत्मीयान्गुणान् । 'पुरिसाणं पुरिसा लोगम्मि उवरोव होंति' पुरुषाणामुपरीव भवन्ति पुरुषा लोके ॥३६८॥ सगुणम्मि जणे सगुणो वि होह लहुगो णरो विकस्थितो । सगुणो वा अकहितो वायाए होंति अगुणेसु ।।३६९।। ‘सगुणम्मि जणे' गुणवति जने । 'सगुणो वि गरो' गुणवानपि नरः । 'लहुगो होदि' लघुर्भवति । कः ? 'सगुणं गरो विकत्यंतो' स्वगुणं नरो वाचा निरूपयन् । किमिव ‘सगुणो वा' गुणवानिव । 'वाचा अकप्यतो' वचनेन अप्रकटयन् । 'अगुणेसु' निगुणमध्ये ।।३६९।। चरिएहिं कत्थमाणो सगुणं सगुणेसु सोभदे सगुणो । वायाए विकहितो अगुणो व जणम्मि अगुणम्मि ॥३७०॥ 'चरिएहिं कत्थमाणो' चरितैरेव प्रकटयन् । किं 'सगुणं' स्वगुणं । 'सगुणो सोभदे' गुणवान् जनः शोभते । क्व 'सगुणेसु' गुणवत्सु । किमिव 'वायाए विकथंतो' वचसा हुवन् । 'अगुणोव्व' निर्गुण इव । 'अगुणम्मि' निर्गुणमध्ये ॥३७०।। __गा०-वचनसे गुणोंको कहना उनका नाश करना है। और आचरणसे गुणोंका कथन उनको प्रकट करना है। अभिप्राय यह है कि जो गुणोंको प्रकट करना चाहता है उसे वचनसे न कहकर गुणोंमें अपनी प्रवृत्तिसे ही गुणोंका प्रकाशन करना चाहिए ॥३६७।। अपने आचरणसे गुणोंको प्रकट करनेका माहात्म्य कहते हैं गा.--जो वचनसे न कहकर साधुजनके मध्यमें अपने आचरणसे अपने गुणोंको कहते हैं पुरुष लोकमें सब पुरुषोंसे ऊपर होते है ।।३६८॥ गा०-गुणवान पुरुषोंमें गुणवान भी मनुष्य यदि अपने गुणोंको कहता है सो लघु होता है । जैसे निर्गुणोंके मध्यमें अपने गुणोंको न कहने वाला गुणवान होता है ।।३६९।। . गा०-गुणवानोंमें गुणवान मनुष्य अपने गुणको अपने आचरणसे प्रकट करता हुआ ही शोभता हैं। जैसे निर्गुण मनुष्योंमें निर्गुण मनुष्य वचनसे अपने गुणोंको कहता हुआ शोभित होता है ||३७०॥ १. नेयं उत्थानिका । -आ० मु० । २. 'वायाए अकहिंता सुजणे वरिदेहिं कहयगा होति । विकहितगा य सगुणे पुरिसा लोगम्मि उवरीव ।।' -आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy