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________________ ७४ भगवती आराधना समूहाः। 'सद्दहिदव्वा' खु श्रद्धातव्याः एव । 'माणाए' आप्तानामाज्ञाबलात् । जीवाश्रद्धाने मुक्तिसंसारविषयपरिप्राप्तित्यागार्थप्रयासानुपपत्तिरिति भावः । यदि नाम धर्मादिद्रव्यापरिज्ञानात् परिज्ञानसहचारिश्रद्धानं नोत्पन्न तथापि नासौ मिथ्यादृष्टिदर्शनमोहोदयस्य अश्रद्धानपरिणामस्याज्ञानविषयस्याभावात् । न हि श्रद्धानस्यानुत्पत्तिरश्रद्धानं इति गृहीतं । श्रद्धानादन्यदश्रद्धानं इदमित्थमिति श्रुतनिरूपितेऽरुचिः । श्रद्धातव्यं प्रकारांतरेणापि निर्देष्टु उत्तरगाथा-पूर्व सर्वद्रव्यविषयश्रद्धानमुक्तं, पश्चादतिशयप्रतिपादनाथं जीवद्रव्यविषया श्रद्धा निरूपिता अनंतरगाथया । इदं तु आस्रवादयोऽपि श्रद्धातव्या इति सूच्यते आसवसंवरणिज्जरबंधो मुक्खो य पुण्णपावं च ।। तह एव जिणाणाए सद्दहिदव्वा अपरिसेसा ॥३७॥ 'आसवसंवरणिज्जर'। आस्रवत्यनेनेत्यास्रवः । आस्रवत्यागच्छति जायते कर्मत्वपर्यायः पुद्गलानां येन कारणभूतेनात्मपरिणामेन स परिणाम आस्रवः । ननु कर्मपद्गलानां नान्यतः आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिताः पुदगलाः अनंतप्रदेशिनः कर्मपर्यायं भजन्ते 'एयक्खित्तोगाढं' मिति वचनात् । तत् किमुच्यते आगच्छतीति ? न दोषः । आगच्छन्ति ढोकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायमित्येवं ग्रहीतव्यं । उपलक्षित चैतन्यके आश्रयसे सिद्धोंमें जीव शब्दका व्यवहार होता है । आप्तकी आज्ञाके बलसे जीवके इन समूहोंका श्रद्धान करना चाहिये, क्योंकि जीवका श्रद्धान न होनेपर मुक्तिकी प्राप्ति और संसारके विषयोंके त्यागके लिये प्रयास नहीं हो सकेगा। यदि धर्मादि द्रव्योंका ज्ञान न होनेसे ज्ञानके साथ रहनेवाला श्रद्धान नहीं उत्पन्न हआ। तो भी वह मिथ्यादृष्टि नहीं है क्योंकि दर्शन मोहके उदयसे होनेवाला श्रद्धानरूप परिणाम, जिसका विषय अज्ञान है, उसका अभाव हैं। अश्रद्धानका अर्थ श्रद्धानका न होना नहीं लिया है किन्तु श्रद्धानसे जो अन्य है वह अश्रद्धान हैं अर्थात् श्रुतमें कहे हुए तत्त्वमें अरुचि अश्रद्धान है ॥३६॥ प्रकारान्तरसे श्रद्धा करने योग्यका कथन करनेके लिए आगेकी गाथा है। पहले सब द्रव्योंके श्रद्धान करनेको कहा । पीछे अतिशय प्रतिपादन करनेके लिये जीव द्रव्य विषयक श्रद्धाका कथन इसके पूर्ववर्ती गाथाके द्वारा किया। इस गाथामें आस्रव आदिकी भी श्रद्धा करना चाहिये, यह सूचित करते हैं ___ गा०-आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष और पुण्य, पाप ये सब सातों पदार्थ उसी प्रकार जिनदेवकी आज्ञासे श्रद्धान करने चाहिये ॥३७।। टी०—जिसके द्वारा आना होता है वह आस्रव है। जिस कारणभूत आत्मपरिणामसे पुद्गलोंका कर्म पर्यायरूपसे आगमन होता है वह परिणाम आस्रव है। शोका-कर्म पुद्गलोंका आगमन अन्य देशसे नहीं होता। जिस आकाश प्रदेशमें आत्मा ठहरा होता है वहीं पर स्थित अनन्तप्रदेशी पुद्गल कर्मपर्याय रूप होते हैं, क्योंकि आगममें 'एकक्षेत्रावगाढ़' कहा है। तब आप कैसे कहते हैं कि आते हैं ? समाधान-इसमें दोष नहीं है, आगमनका अर्थ ज्ञानावरणादि पर्याय रूपको प्राप्त होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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