SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं । छंदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा || ६६१॥ 'चत्तारि जणा' चत्वारो यतय: । 'भत्तं' अशनं । 'पाउगं' प्रायोग्यं उद्गमादिदोषानुपहतं । 'उवकप्पेंति' आनयन्ति । 'अगिलाए' ग्लानिमन्तरेण । कियन्तं कालमानयाम इति संक्लेशं विना । 'छंदियं ' क्षपकेण इष्टं अशनं पानं वा । क्षुत्पिपासापरीषहप्रशान्तिकरणक्षममित्येतावता तेनेष्टं न तु लौल्यात् । 'अवगद - दोसं' वातपित्तश्लेष्मणामजनकं । क आनयन्ति ? 'अमाइणो' मायारहिताः अयोग्यं योग्यमिति ये नानयन्ति । 'लद्धिसंपण्णा' मोहान्त रायक्षयोपशमाद्भिक्षालब्धिसमन्विताः । अलब्धिमान्क्षपकं क्लेशयति । मायावी अयोग्यं योग्यमिति कल्पयेत् ॥६६१॥ चत्तारि जणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं । छंदमव गददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ||६६२॥ चत्तारि जणा पाणगा इति स्पष्टार्थ गाथा - सूरिणा अनुज्ञातौ निवेदितात्मानौ द्वौ द्वौ पृथग्भक्तं पृथक्पानं चानयतः ॥ ६६२॥ ४४३ चत्तारि जणा रक्खन्ति दवियमुवकप्पियं तयं तेहि । अगिला अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छति || ६६३ || तैरानीतं भक्तं पानं वा चत्वारो रक्षन्ति प्रमादरहिताः सा यथा न प्रविशन्ति, यथा वापरे न पातयन्ति ॥ ६६३ ॥ उठाये बाँसके अग्रभागपर अपनी कलाका प्रदर्शन करता है अतः परिचारक ऐसा ही प्रयत्न करते हैं जिससे वह सफल हो ॥६६०|| I गा०-चार परिचारक यति उस क्षपकके लिए उसको इष्ट खान-पान विना ग्लानिके लाते हैं । उन्हें ऐसा संक्लेश नहीं होता कि कबतक हम इसके लिए लावें । तथा खान-पान उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है । और वात पित्त कफको उत्पन्न करनेवाला नहीं होता । क्षपकं भी लिप्सावश आहार पसन्द नहीं करता । किन्तु भूख और प्यास परीषहको शान्त करनेमें समर्थ खान-पानकी इच्छा करता है । जो यति आहार लाते हैं मायावी नहीं होते, अयोग्य आहारको योग्य नहीं कहते । मायावी अयोग्यको योग्य कह सकता है । तथा वे मोह और अन्तरायकर्मीका क्षयोपशम होनेसे भिक्षालब्धिसे युक्त होते हैं । उन्हें भिक्षा अवश्य मिल जाती है । अलब्धिमान् मुनि भिक्षा न मिलनेपर खाली हाथ लौटकर क्षपकको कष्ट पहुँचाता है ||६६१॥ गा०—चार परिचारक मुनि क्षपकके लिए विना ग्लानिके उद्गम आदि दोषोंसे रहित, वातपित्त कफको पैदा न करनेवाला तथा क्षपककी प्यास परिषहको शान्त करनेवाला पानक लाते हैं। वे लानेवाले यति मायारहित और भिक्षालब्धिसे सम्पन्न होते हैं । आचार्यकी अनुज्ञासे स्वयं अपनेको उपस्थित करनेवाले दो-दो परिचारक भोजन और पान अलग-अलग लाते हैं ॥६६२॥ गा० - चार यति उन यतियोंके ग्लानिके प्रमादरहित होकर रक्षा करते है Jain Education International द्वारा लाये गये खान-पानकी विना किसी प्रकारकी कि उसमें त्रसादि न गिरे अथवा कोई उसमें सादि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy