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________________ ४४२ भगवती आराधना क्षपकस्य । यदेव पूर्वपक्षीकृतं दूपणाभिधानाय तदेव तत्त्वमित्यध्यवसायादसमीचीनज्ञानदर्शनस्य रत्नत्रयकाम्यं नास्तीति मन्यते ॥ ६५७ ॥ बहुश्रुतस्य पयोगिनी विक्षेपणीतीमां शङ्कां निरस्यतिआगममाहप्पगओ विकहा विक्खेवणी अपाउग्गा । अब्भुज्जदग्मि मरणे तस्स वि एदं अणायदणं || ६५८ || 'आगममाहपदो वि' बहुश्रुतस्यापि । 'विक्खेवणी' विक्षेपणी । 'अपाउगा' अप्रायोग्या | अब्भुज्जर्दसि मरणे' रत्नत्रयाराधनपरे मरणे । 'तस्स वि' बहुश्रुतस्यापि 'एवं' एतत् । 'अणायदणं' अनायतनं अनाधारः ॥६५८॥ अभुज्जमि मरणे संथारत्थस्स चरमवेलाए । तिहिं पि कहंति कहं तिदंडपरिमोडया तम्हा || ६५९ || 'अब्भुज्जमि मरणे' निकटभूते मरणे । कस्य 'संथारत्थस्स चरिमवेलाए' संस्तरस्थस्य अन्तकाले । 'तिविहं वि' कहति कथं संवेजनीं निर्वेजनी आक्षेपणीं वा कथां कथयन्ति । 'तिदंडपरिमोडया' अशुभमनोवाक्काया दण्डशब्देनोच्यन्ते तद्भेदनकारिणः सूरयः । 'तम्हा' तस्मात् अनायतनत्वाद्विक्षेपिण्याः ॥६५९ ॥ जुत्तस्स तवधुराए अब्भुज्जदमरणवेणुसीसंमि । वह वे कहेंति घीरा जह सो आराहओ होदि ॥ ६६०|| 'जसस्स' युक्तस्य । 'तवघुराए' तपोभारेण । 'अब्भुज्जदमरण वेणुसो सम्मि' समीपीभूतमरणवंशस्य शिरसि स्थितस्य क्षपकस्य । 'ते धीरा तह कहेंति' ते धीरास्तथा कथयन्ति । 'जध सो आराधगो होवि' यथासावाराधको भवति रत्नत्रयस्य ॥ ६६० ॥ ज्ञानी क्षपकका असमाधिपूर्वक मरण होगा; क्योंकि विक्षेपणीमें दूषण देनेके लिए पहले परमतका कथन होता है । अल्पज्ञानी क्षपक उसे तत्त्व समझ बैठे तो मिथ्याज्ञान और मिथ्या श्रद्धान होनेसे रत्नत्रयकी एकाग्रता नहीं रहती || ६५७।। तो क्या बहुशास्त्राभ्यासी क्षपकके लिए विक्षेपणी कथा उपयोगी है ? इस शंकाका निरसन करते हैं गा० - बहुश्रुत भी क्षपकके लिए विक्षेपणी कथा उपयोगी नहीं है; क्योंकि मरणके समय रत्नत्रयकी आराधना में तत्पर रहना होता है । अतः उसके लिए भी यह कथा अनायतन है वह उसका आधार नहीं है ||६५८|| गा० - जब संस्तरपर स्थित क्षपकका अन्तकाल होता है और मरण निकट होता है तब अशुभ मनवचनकायको निर्मूल करनेवाले साधु संवेजनी, निर्वेजनी और आक्षेपणी इन तीन ही कथाओंको कहते हैं । अतः विक्षेपणी कथा अनायतनरूप है ||६५९|| गा०—जो तपका भार उठाये हुए है अर्थात् तपस्यामें लीन है और निकटवर्ती मरणरूपी बाँसके अग्रभागपर खड़ा है उस क्षपकको वे धीर परिचारक ऐसा उपदेश देते हैं जिसमें वह रत्नत्रयका आराधक होता है । अर्थात् क्षपककी स्थिति उस नटके समान है जो सिरपर बोझ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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