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________________ ४४४ भगवती आराधना काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिट्ठवन्ति खवयस्स । पडिलेहंति य उवघोकाले सेज्जुवधिसंथारं ।।६६४॥ - 'काइगमादो सव्वं' पुरीषप्रभृतिकं मलं सर्वं । क्षपकस्य चत्वारः । 'पदिठिवंति' प्रतिष्ठापयन्ति । 'पडिलेहंति य' प्रतिलिखन्ति च । 'उवधो काले' उदयास्तमनकालवेलयोः। 'सेज्जवधिसंथार' वसतिमुपकरणं, संस्तरं च ॥६६४॥ खवगस्स घरदुवारं सारक्खंति जदणाए दु चत्तारि । चत्तारि समोसरणदुवारं रक्खंति जदणाए ॥६६५॥ 'खवगस्स' क्षपकस्य । 'घरदुवारं' गृहद्वारं । 'सारक्खंति' पालयन्ति । 'जदणाए' यत्नेन । 'चत्तारि' चत्वारः । असंयतान् शिक्षकांश्च निषेधुं द्वारपालायन्ते । 'चत्तारि' चत्वारः । 'समोसरणदुवारं' समवशरणद्वारं । 'जदणाए' यत्नेन । 'आरक्षं ति' पालयन्ति ॥६६५।। जिदणिद्दा तल्लिच्छा रादो जग्गंति तह य चत्तारि । चत्तारि गवेसंति खु खेत्ते देसप्पवत्तीओ ॥६६६।। "जितणिद्दा' जितनिद्राः 'तल्लिच्छा' निद्राजयलिप्सवः । 'रादो' रात्रौ । 'जग्गंति' जागरं कुर्वन्ति । 'तह य' तत्र क्षपकसकाशे। 'चत्तारि' चत्वारः । 'गवेसंति खु' परीक्षां कुर्वन्ति । 'खेत्ते' क्षेत्रे स्वाध्युषिते । 'देसपवत्तीओ' देशस्य क्षेमवाता ॥६६६।। वाहिं असद्दवडियं कहंति चउरो चदुविधकहाओ। ससमयपरसमयविदू परिसाए समोसदाए दु ॥६६७॥ जन्तु न गिरा दे। वे सब क्षपककी समाधिके इच्छुक होते हैं कि उसकी समाधि निर्विघ्न पूर्ण हो ॥६६३।। ___गा.-चार मुनि क्षपकके सब मलमूत्र उठानेका कार्य करते हैं । और सूर्य के उदय तथा अस्त होनेके समय वसति, उपकरण और संथरेकी प्रतिलेखना करते हैं ।।६६४|| गा०-चार यति सावधानतापूर्वक क्षपकके घरके द्वारकी रक्षा करते हैं । ऐसा वे असंयमी जनों और शिक्षकोंको अन्दर प्रवेश करनेसे रोकनेके लिए करते हैं। चार मुनि सावधानतापूर्वक समवसरण द्वार अर्थात् धर्मोपदेश करनेके घरके द्वारको रक्षा करते हैं ।।६६५।। गा-निद्राको जीत लेनेवाले और निद्राको जीतनेके इच्छुक चार यति रातमें क्षपकके पास जागते हैं। और चार मुनि अपने रहनेके क्षेत्रमें देशकी अच्छी बुरी प्रवृत्तियोंकी परीक्षा करते हैं। अर्थात् जिस क्षेत्रमें क्षपक समाधि मरण करता है उस देशके अच्छे बुरे समाचारोंकी खबर रखकर उनकी परीक्षा करते हैं कि समाधिमें कोई बाधा आनेका तो खतरा नहीं है ॥६६६॥ विशेषार्थ-गाथामें 'तल्लिच्छा' पाठ है और विजयोदयामें उसका अर्थ निद्राको जीतनेके इच्छुक किया है। किन्तु पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'तण्णिवा' पाठ रखकर उसका अर्थ क्षपककी सेवामें तत्पर किया है । जितनिद्दाके साथ यह पाठ संगत प्रतीत होता है ।।.६६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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