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________________ विजयोदया टीका ४४५ 'वाहि' बहिः क्षपकावासात् । 'असद्दपडिगं' यावत् दूरे स्थितानां शब्दो न श्रूयते तत्र स्थित्वा । 'चउरों' चत्वारः पर्यायेण । 'कथाओं' चविधाः कथाः पूर्वव्यावणिताः । कीदृग्भूतास्ते कथका अत आह'ससमयपरसमयविदू' स्वपरपक्षसिद्धान्तज्ञाः । 'परिसाए' परिषदे । 'समोसदाए' द्राक् समागतायै ॥६६७॥ . वादी चत्तारि जणा सीहाणुग तह अणेयसत्थविद् । धम्मकहयाण रक्खाहेदं विहरंति परिसाए ॥६६८॥ 'वादी' वादिनः । 'चत्तारि जणा' चत्वारः। 'सोहाणुग' सिंहसमानाः । 'अणेगसत्थविदू' अनेकशास्त्रज्ञः धम्मकहयाण धर्म कथयतां । 'रक्खाहेदु" रक्षार्थ । 'विहरंति' इततस्तो यान्ति । 'परिसाए' परिषदि ॥६६८॥ उपसंहरन्ति प्रस्तुतं एवं महाणुभावा पग्गहिदाए समाधिजदणाए । तं णिज्जवंति खवयं अडयालीसं हिं' णिज्जवया ।।६६९।। ‘एवं महाणुभावा' एवं माहात्म्यवन्तः । 'पग्गहिदाए' प्रकृष्टया । 'समाधिजदणाए' समाधौ क्षपकस्य प्रयत्नवृत्त्या। 'तं णिज्जवंति खवयं' तं निर्यापयन्ति क्षपकं । 'अडदालीसं हि' अष्टचत्वारिंशत्प्रमाणाः । 'णिज्जवगा' निर्यापकाः ॥६६९।। ___ व्यावणितगुणा एव निर्यापका इति न ग्राह्यं, किन्तु भरतैरावतयोविचित्रकालस्य परावृत्तेः कालानुसारेण प्राणिनां गुणाः प्रवर्तन्ते तेन यदा यथाभूताः शोभनगुणाः सम्भवन्ति तदा तथाभूता यतयो निर्यापकत्वेन ग्राह्या इति दर्शयति जो जारिसओ कालो भरदेवदेसु होइ वासेसु । ते तारिसया तदिया चोद्दालीसं पि णिज्जवया ॥६७०॥ गा०-क्षपकके आवासके बाहर स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तके ज्ञाता चार यति क्रमसे एक एक करके सभामें धर्म सुननेके लिए आये हुए श्रोताओंको पूर्ववणित चार कथाएँ इस प्रकार कहते हैं कि दूरवर्ती मनुष्य उनका शब्द न सुन सके । अर्थात् क्षपकको सुनाई न दे इतने धीरेसे बोलते हैं । उससे क्षपकको किसी प्रकारकी बाधा नहीं होती ॥६६७॥ गा०-अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता और वाद करनेमें कुशल चार मुनि धर्मकथा करनेवालोंकी रक्षाके लिए सभामें सिंहके समान विचरते हैं। अर्थात् धर्मकथामें कोई विवादी विवाद खड़ा कर दे तो वाद करनेमें कुशल मुनि उसका उत्तर देनेके लिए तत्पर रहते हैं ॥२६८॥ प्रस्तुत चर्चाका उपसंहार करते हैं गा०-इस प्रकार माहात्म्यशाली अड़तालीस निर्यापक यति क्षपककी समाधिमे उत्कृष्ट प्रयत्नशील रहते हुए उस क्षपकको संसार समुद्रसे निकलनेके लिए प्रेरित करते हैं ।।६६९।! ___ऊपर कहे गुणवाले यति ही निर्यापक होते हैं ऐसा अर्थ नहीं लेना। किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें कालका विचित्र परिवर्तन होता रहता है। और कालके अनुसार प्राणियोंके गुण भी बदलते रहते हैं। अतः जिस कालमें जिस प्रकारके शोभनीय गुण सम्भव हैं १. संपिणिज्ज-आ० । सं पणिज्ज-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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