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________________ ४४६ भगवती आराधना 'जो जारिसओ कालो इत्यादिना' यो यादृक्कालो । 'भरदेरवदेसु वासेसु' भरतरावतेषु जनपदेषु । पञ्चभरताः पञ्चरावतास्ते निर्यापकास्तारिसगा तादृग्भूताः कालानुगुणा इति यावत् । 'तइया' तस्मिन्काले ग्राह्या इत्यर्थः ।।६७०॥ एवं चदुरो चदुरो परिहावेदव्वगा य जदणाए । कालम्मि संकिलिलुमि जाव चत्तारि साधेति ।।६७१॥ णिज्जावया य दोण्णि वि होति जहण्णेण कालसंसयणा । एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुने ॥६७२।। स्पष्टार्थोत्तरगाथाद्वयमिति न व्याख्यायते । जघन्यतो द्वौ निर्यापको इति किमर्थमुच्यते । एको जघन्यतो निर्यापकः कस्मान्नोपन्यस्त इत्याशङ्कायां एकस्मिन्निपिके दोषमाचष्टे एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परो पवयणं च । वसणमसमाधिमरणं उड्डाहो दुग्गदी चावि ।।६७३।। एको यदि निर्यापकः । 'अप्पा चत्तो' आत्मा त्यक्तो भवति निर्यापकेण, परः क्षपकस्त्यक्तो भवति । 'पवयणं च प्रवचनं च त्यक्तं भवति । 'वसणं' व्यसनं दुःखं भवति । 'असमाधिमरणं' समाधानमन्तरेण मृतिः स्यात् । ‘उड्डाहो' धर्मदूषणा भवति । 'दुग्गदी चावि' दुर्गतिश्च भवति ॥६७३।। एवं निर्यापकेणात्मा त्यक्तो भवति, एवं क्षपक इत्येतत्कथयन्ति खवगपडिजग्गणाए भिक्खग्गहणादिमकुणमाणेण । अप्पा चत्तो तबिवरीदो खवगो हवदि चत्तो ॥६७४।। उस कालमें उन गुणवाले यति निर्यापकरूपसे ग्राह्य हैं यह कहते हैं गा०–पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रोंमें जब जैसा काल हो तब उसी कालके अनुकूल गुणवाले चवालीस निर्यापक स्थापित करना चाहिए ॥६७०|| गा.-इस प्रकार ज्यों-ज्यों काल खराब होता जाये त्यों-त्यों देशकालके अनुसार सावधानतापूर्वक चार-चार निर्यापक कम करते जाना चाहिए। अन्तमें चार निर्यापक ही समाधिमरणको सम्पन्न करते हैं। अधिक काल खराब होनेपर कमसे कम दो निर्यापक भी होते हैं । किन्तु जिनागममें किसी भी अवस्थामें एक निर्यापक नहीं कहा ॥६७१-६७२।। जघन्यसे दो निर्यापक क्यों कहे ? जघन्यसे एक निर्यापक क्यों नहीं कहा ? ऐसी आशंकामें एक निर्यापकमें दोष कहते हैं गा०-यदि एक निर्यापक होता है तो निर्यापकके द्वारा आत्माका भी त्याग होता है, क्षपकका भी त्याग होता है और प्रवचनका. भी त्याग होता है । तथा दुःख उठाना होता है। क्षपकका असमाधिपूर्वक मरण होता है, धर्ममें दूषण लगता है और दुर्गति होती है ॥६७३।। एक निर्यापकके द्वारा आत्मा और क्षपक इस प्रकार त्यक्त होते हैं, यह कहते है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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